ध्यान महिमा
ध्यान का मतलब क्या ?
ध्यान है डूबना । ध्यान है आत्म-निरीक्षण करना… ‘हम कैसे है’ यह देखना… ‘कहाँ तक पहुंचे है’ यह देखना… ‘कितना अपने-आपको भूल पाये है’ यह देखना… ‘कितना विस्मृतियोग में डूब पाये है’ यह देखना…
ध्यान अर्थात् न करना… कुछ भी न करना ।
सब काम करने से नहीं होते हैं । कुछ काम ऐसे भी हैं जो न करने से होते हैं । ध्यान ऐसा ही एक कार्य है । कम-से-कम सुने, कम से कम मन में संकल्प-विकल्प उत्पन्न हों, कम-से-कम इन्द्रियों को भजन दें ।
चुप रहना मौन रहना भी कोई मजाक की बात नहीं है । बहुत कठिन है । चुप वे ही रह पाते हैं जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है । मौन वे ही रहे पाते हैं, गहरे भी वे ही उतर पाते हैं, जिनका लक्ष्य परमात्मा होता है । अन्यथा मनोरंजन व मनपसंद कायों में ही मनुष्य की समय-शक्ति खर्च हो जाती है । मौन रहकर उसीमें डूब जाना – यह भी एक बहुत बड़ी साधना है बहुत बड़ी कमाई है ।
सब काम करने से नहीं होते । कुछ काम ऐसे भी है जो न करने से होते है । ध्यान ऐसा ही एक कार्य है । आप दुनिया का कोई भी काम करो लेकिन जाने-अनजाने आप ध्यान के जितने करीब होंगे उतने ही आप उस कार्य में सफल होंगे ।
ध्यान की बडी भारी महिमा है । श्रम करके कितना भी धन, सत्ता, कुर्सियाँ पा लो लेकिन मनुष्य को स्थायी व सच्चा सुख और वास्तविक समझ तब तक नहीं मिलती जब तक उसके पास अंतरात्मा-परमात्मा का रस, परमात्मा का ज्ञान, परमात्मा का ध्यान नहीं होता । सब दुःखों को सदा के लिए मिटाना है तो भगवान की एक बात मान लो । क्या बात माननी है ?
भगवान कहते हैं :
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: ।
(गीता : १५.७)
सत्संग भी उसीको फलता है जो ध्यान करता है ।
नास्ति ध्यानसमं तीर्थम् । नास्ति ध्यानसमं दानम् ।
नास्ति ध्यानसमं यज्ञम् । नास्ति ध्यानसमं तपम् ।
तस्मात् ध्यानं समाचरेत् ।
ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं । ध्यान के समान कोई दान नहीं । ध्यान के समान कोई यज्ञ नहीं । ध्यान के समान कोई तप नहीं । अतः हर रोज़ ध्यान करना चाहिए ।
विधि – सुबह सूर्योदय से पहले उठकर, नित्यकर्म करके गरम कंबल अथवा टाट का आसन बिछाकर पद्मासन में बैठें । अपने सामने भगवान अथवा गुरूदेव का चित्र रखें । धूप-दीप-अगरबत्ती जलायें । फिर दोनों हाथों को ज्ञानमुद्रा में घुटनों पर रखें । थोड़ी देर तक चित्र को देखते-देखते त्राटक करें । पहले खुली आँख आज्ञाचक्र में ध्यान करें । फिर आँखेंबंद करके ध्यान करें । बाद में गहरा श्वास लेकर थोड़ी देर अंदर रोक रखें, फिर हरि ॐ….. दीर्घ उच्चारण करते हुए श्वास को धीरे-धीरे बाहर छोड़ें । श्वास को भीतर लेते समय मन में भावना करें- मैं सदगुण, भक्ति, निरोगता, माधुर्य, आनंद को अपने भीतर भर रहा हूँ । और श्वास को बाहर छोड़ते समय ऐसी भावना करें- मैं दुःख, चिंता, रोग, भय को अपने भीतर से बाहर निकाल रहा हूँ । इस प्रकार सात बार करें । ध्यान करने के बाद पाँच-सात मिनट शाँत भाव से बैठे रहें ।
लाभः इससे मन शांत रहता है, एकाग्रता व स्मरणशक्ति बढ़ती है, बुद्धि सूक्ष्म होती है, शरीर निरोग रहता है, सभी दुःख दूर होते हैं, परम शाँति का अनुभव होता है और परमात्मा के साथ संबंध स्थापित किया जा सकता है ।
अध्यात्म का रास्ता अटपटा जरूर है । खटपट भी थोड़ी-बहुत होती है और समझ में भी जटपट नहीं आता लेकिन अगर थोड़ा-सा भी समझ में आ जाये, धीरज न टूटे, साहस न टूटे और परमात्मा को पाने का लक्ष्य न छूटे तो प्राप्ति तो हो ही जाती है ।
विज्ञान को अब समझ में आयी ध्यान की महिमा
ध्यान सर्वोच्च मेधा, प्रज्ञा, दिव्यता तथा प्रतिभा रूपी अमूल्य सम्पत्ति को प्रकट करता है । मानसिक उत्तेजना, उद्वेग और तनाव की बड़े-में-बड़ी दवा ध्यान है । जो लोग नियमित रूप से ध्यान करते हैं, उन्हें दवाइयों पर अधिक धन खर्च नहीं करना पड़ता । भगवद्ध्यान से मन-मस्तिष्क में नवस्फूर्ति, नयी अनुभूतियाँ, नयी भावनाएँ, सही चिंतन प्रणाली, नयी कार्यप्रणाली का संचार होता है । गुरु-निर्दिष्टध्यान से ‘सब ईश्वर ही है’ ऐसी परम दृष्टि की भी प्राप्ति होती है । ध्यान की साधना सूक्ष्म दृष्टिसम्पन्न, परम ज्ञानी भारत के ऋषि-मुनियों का अनुभूत प्रसाद है ।
आज आधुनिक वैज्ञानिक संत-महापुरुषों की इस देन एवं इसमें छुपे रहस्यों के कुछ अंशों को जानकर चकित हो रहे हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार ध्यान के समय आने-जाने वाले श्वास पर ध्यान देना हमें न सिर्फ शारीरिक बल्कि मानसिक विकारों के भी दूर रखता है । इससे तनाव व बेचैनी दूर होते हैं और रक्तचाप नियंत्रित होता है । पूज्य बापू जी द्वारा बतायी गयी श्वासोच्छ्वास की गिनती की साधना और ॐकार का प्लुत उच्चारण ऐसे अनेक असाधारण लाभ प्रदान करते हैं, साथ ही ईश्वरीय शांति एवं आनंद की अनुभूति कराते है, जो वैज्ञानिकों को भी पता नहीं है
हार्वर्ड विश्वविद्यालय में एक अध्ययन में पाया गया कि ध्यान के दौरान जब हम अपने हर एक श्वास पर ध्यान लगाते हैं तो इसके साथ ही हमारे मस्तिष्क के कॉर्टेक्स नाम हिस्से की मोटाई बढ़ने लगती है, जिससे सम्पूर्ण मस्तिष्क की तार्किक क्षमता में बढ़ोतरी होती है । अच्छी नींद के बाद सुबह की ताजी हवा में गहरे श्वास लेने का अभ्यास दिमागी क्षमता को बढ़ाने का सबसे बढ़िया तरीका है। पूज्य बापू जी द्वारा बतायी गयी दिनचर्या में प्रातः 3 से 5 का समय इस हेतु सर्वोत्तम बताया गया है । कई शोधों से पता चला है कि जो लोग नियमित तौर पर ध्यान करते हैं, उनमें ध्यान न करने वालों की अपेक्षा आत्मविश्वास का स्तर ज्यादा होता है । साथ ही उनमें ऊर्जा और संकल्पबल अधिक सक्रिय रहता है ।
येल विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ता का कहना है कि ‘ध्यान करने वाले छात्रों का आई.क्यू. लेवल (बौद्धिक क्षमता) औरों से अधिक देखा गया है ।’
चार अवस्थाएँ
ध्यान से प्राप्त शांति तथा आध्यात्मिक बल की सहायता से जीवन की जटिल-से-जटिल समस्याओं को भी बड़ी सरलता से सुलझाया जा सकता है और परमात्मा का साक्षात्कार भी किया जा सकता है । चार अवस्थाएँ होती है- घन सुषुप्ति (पत्थर आदि), क्षीण सुषुप्ति (पेड़-पौधे आदि), स्वप्नावस्था (मनुष्य, देव, गंधर्व आदि), जाग्रत अवस्था (जिसने अपने शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य स्वभाव को जान लिया है) ।
संत तुलसीदास जी ने कहाः
मोह निसाँ सबु सोवनिहारा । देखिअ सपन अनेक प्रकारा । । (श्री राम चरित. अयो. कां. 92.1)
‘मैं सुखी हूँ, दुःखी हूँ’ यह सब सपना है । ‘मैं’ का वास्तविक स्वरूप जाना तब जाग्रत ।
इसलिए श्रुति भगवती कहती हैः
उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ।…. (कठोपनिषद् 1.3.14)
महापुरुष के पास जाओ और तत्त्वज्ञान के उपदेश से अपने में जाग जाओ ।
ध्यान माने क्या ?
पूज्य बापू जी कहते हैं- “ध्यान माने क्या ? हमारा मन नेत्रों के द्वारा जगत में जाता है, सबको निहारता है तब जाग्रतावस्था होती है, ‘हिता’ नाम की नाड़ी में प्रवेश करता है तब स्वप्नावस्था होती है और जब हृदय में विश्रांति करता है तब सुषुप्तावस्था होती है । ध्यानावस्था न जाग्रतावस्था है, न स्वप्नावस्था है और सुषुप्तावस्था है वरन् ध्यान चित्त की सूक्ष्म वृत्ति का नाम है । आधा घंटा परमात्मा के ध्यान में डूबने की कला सीख लो तो जो शांति, आत्मिक बल और आत्मिक धैर्य आयेगा, उससे एक सप्ताह तक संसारी समस्याओं से जूझने की ताकत आ जायेगी । ध्यान में लग जाओ तो अदभुत शक्तियों का प्राकट्य होने लगेगा ।”
ध्यान किसका करें और कैसे करें ?
प्राचीनकाल से आज तक असंख्य लोगों ने परमात्म-ध्यान का आश्रय लेकर जीवन को सुखी, स्वस्थ व समृद्ध तो बनाया ही, साथ ही परमात्मप्राप्ति तक की यात्रा करने में भी सहायता प्राप्त की । पूज्य बापू जी जैसे ईश्वर-अनुभवी, करुणासागर, निःस्वार्थ महापुरुष ही ईश्वर का पता सहज में हमें बता सकते हैं, हर किसी के बस की यह बात नहीं । पाश्चात्य वैज्ञानिक ध्यान के स्थूल फायदे तो बता सकते हैं परंतु ध्यान का परम-लाभ…. सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम लाभ बताना ब्रह्मवेत्ताओं के लिए ही सम्भव है । ईश्वर का ध्यान हर समय कैसे बना रहे ? इसके बारे में पूज्य बापू जी बताते हैं- “भ…ग… वा …न…. जो भरण-पोषण करते हैं, गमनागमन (गमन-आगमन) की सत्ता देते हैं, वाणी का उद्गम-स्थान है, सब मिटने के बाद भी जो नहीं मिटते, वे भगवान मेरे आत्मदेव हैं । वे ही गोविंद हैं, वे ही गोपाल हैं, वे ही राधारमण हैं, वे ही सारे जगत के मूल सूत्रधार हैं – ऐसा सतत दृढ़ चिंतन करने से एवं उपनिषद् और वेदांत का ज्ञान समझ के आँखें बंद करने से शांति-आनंद, ध्यान में भी परमात्म-रस और हल्ले-गुल्ले में भी परमात्म-रस ! ‘टयूबलाइट, बल्ब, पंखा, फ्रिज, गीजर – ये भिन्न-भिन्न हैं लेकिन सबमें सत्ता विद्युत की है, ऐसे ही सब भिन्न-भिन्न दिखते हुए भी एक अभिन्न तत्त्व से ही सब कुछ हो रहा है ।’ – ऐसा चिंतन-सुमिरन और प्रीतिपूर्वक ॐकार का गुंजन करें, एकटक गुरु जी को, ॐकार को देखें ।”
चार प्रकार के ध्यान
ध्यान चार प्रकार का होता है :
(१) पादस्थ ध्यान :
भगवान या सदगुरु- जिनमें तुम्हारी प्रीति हो उनके चरणारविंद को खते- देखते ध्यानस्थ हो जाना – इसको बोलते हैं ‘पादस्थ ध्यान’ ।
(२) पिंडस्थ ध्यान :
अपने शरीर में सात केंद्र या चक्र हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धाख्य , आज्ञा एवं सहस्रार ।आंखे बंद करके इनमें से किसी भी केन्द्र पर मन को एकाग्र करना ‘पिंडस्थ ध्यान’ कहलाता हैं ।
(३) रूपस्थ ध्यान :
बहती हुई नदी, सागर, चन्द्रमा, आकाश, प्रकृति को, किसी वस्तु को अथवा भगवान या सदगुरु के मुखमंडल को एकटक देखते- देखते मन शांत हो गया ।इसे “रूपस्थ ध्यान” कहते हैं । हम पहले भगवान की मूर्ति का ध्यान करते थे । जब गुरुजी मिल गये तो सारे भगवान गुरुतत्त्व में ही समा गये । डीसा में हमारा साधना का कमरा कोई खोलकर देखे तो गुरुजी की मूर्ति ही होगी बस । ध्यानमूल गुरोमूर्ति: ।
(४) रूपातीत ध्यान :
वासुदेव: सर्वम्…
‘वासुदेव ही सब कुछ हैं, सर्वत्र हैं’ – इस प्रकार का चिंतन-ध्यान ‘रूपातीत ध्यान’ कहलाता है । फिर द्वेष नहीं रहता, भय नहीं रहता, क्रोध नहीं रहता । “अनेक रूपों में एक मेरा वासुदेव है” – ऐसा चिंतन करके भावातीत, गुणातीत दशा में चुप हो जाना ।ऐसा चुप होना सबके बस की बात नहीं है । इसलिए तनिक चुप हो जायें, फिर ॐ हरि ॐ… का दीर्घ उच्चारण करें । ‘म’ बोलने के समय होंठ बंद रहें । इस प्रकार के ध्यान से ऊँची दशा में पहुँच जाओगे ।
पादस्थ से पिंडस्थ ध्यान अंतरंग है पिंडस्थ से रूपस्थ ध्यान अंतरंग है और रूपस्थ से रूपातीत । लेकिन जो जिसका अधिकारी है उसके लिए वही बढ़िया है । ध्यान करनेवाले को अपनी रुचि और योग्यता का भी विचार करना चाहिए ।
इनमें से किसी भी प्रकार के ध्यान में लग जाओ तो अद्भुत शक्तियों का प्राकट्य होने लगेगा । एक अनपढ़ गँवार व्यक्ति भी अगर किसी एक प्रकार का ध्यान करने लगे तो बड़े-बड़े धनिकों के पास, बड़े- बड़े सत्ताधीशों के पास, बडे-बड़े विद्वानों के पास जो नहीं है वे सारी शक्तियाँ उसके पास आ जायेंगी ।