सत्संग महिमा
सत्संग अर्थात् सत् का संग, शाश्वत का संग और शाश्वत केवल परमात्मा है ।
सत्संग की आधी घड़ी सुमिरन बरस पचास ।
बरखा बरसे एक घड़ी अरहट फिरे बारों मास ।।
जैसे अरहट बारहों मास फिरता रहे फिर भी उतनापानी नहीं दे पातालेकिन एक घड़ी की वर्षा बहुतसारा पानी बरसा देती है ।ऐसे ही सत्संग से भी अमापलाभ मिलता हैं । सत्संग ही साघना को पुष्ट करता है । साधक ऐसेही जप करता रहेगा तो कभी तो ऊब जाएगा पर सत्संग सुनता रहेगा तो कभी जप की महिमा सुनेगा, कभी ध्यान की महिमा सुनेगा कभी ज्ञान की बातें सुनेगातो जप में, ध्यान में, ज्ञान में रुचि होगी । काम करते-करते सत्संग में सुनी हुई बातों को याद रखेगा तोभी बहुत लाभ होगा ।
सत्संग ऐसी बढ़िया चीज है कि सत्संग सुनते रहनेसे आदमी के चित्त में विवेक जगता है । एक होता है सामान्य विवेक, दूसरा होता है मुख्य विवेक ।
सामान्य विवेक याने शिष्टाचार । कैसे उठना, कैसे बैठना, कैसे बोलना, बडों के साथ कैसा व्यवहार करना, महापुरुष हैं तो उनसे दो कदम पीछे चलना, कुछ पूछे तो विनम्रता से उत्तर देना, उनके सामने अपने चित्त की दशा का वर्णन करना, यह सामान्य विवेक सत्संग में मिलता हैं ।सत्संग सुनते- सुनते जब आदमी के चित्त कि पहली भूमिका बन जाती हैं तो सामान्य विवेक या शिष्टाचार अपने- आप पैदा होने लगता हैं ।
दूसरा विवेक है मुख्य विवेक । वह है आत्मा-अनात्मा का विवेक । सत्संग में सुनी हुई बातें याद रखकर उसका मनन करने से मुख्य विवेक जगता हैं । एक होती है रहनेवाली चीज, वह है आत्मा । दूसरी होती है छूटनेवाली, नष्ट होनेवाली चीज, वह है अनात्मा, मायारूपी जगत के पदार्थ । जो अनात्म प्रदार्थ हैं वे चाहें कितने भी कीमती हों, कितने भी सुंदर हों, कितने भी सुखद लगें किन्तु कभी तो उनका वियोग होगा ही ।
तुलसीदासजी महाराज कहते हैं :
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला इक अंग ।
तुलिन ताहि सकल मिली, जो सुख लव सत्संग ।।
समस्त स्वर्ग और अपवर्ग (मोक्ष) के सुखको तराजू के एक पलड़े पर रखें और दूसरे पलड़ेपर एक क्षण के सत्संग के फलको रखें तो भी एकक्षण के सत्संग की बराबरी नहीं हो सकती । इतनी बड़ी सत्संग की महिमा है !
लेकिन सत्संग एक ऐसा जीवनरस है जो मनुष्य के सारे भय, चिन्ता, शोक, मोह, अहंकार, तनाव को मिटा देता है, सारी बेवकूफी दूर कर देता है, तमाम बोझ हटा देता है ।बिना सत्संग के कोईपूर्ण सुखी हो जाये, यह संभव नहीं है ।आकाश को अगर कोई चर्म की तरह लपेटकर बगल मेंरख सकता है, तो आदमी बिना सत्संग के भीसुखी हो सकता है । लेकिन ऐसा संभव नहीं है ।विलक्षण बुद्धिवाले महापुरुषों और विचारकों का सबका यही मत है ।
अरे मेरे भैया ! तुमने पाप किये हों तो सत्संग में जाना चाहीए और पाप नही किये हों तो सत्संग में नही जाना चाहिए, ऐसी बात नहीं हैं ।पुण्य- पाप का मिश्रण होता हैं, तभी मानव तन मिलता हैं ।जन्म लिया यह दुःख….. जरा आये तो दुःख….. व्याधि आयी तो दुःख…. मरे तब भी दुःख…… ये तो पीछे लगे ही हुए है और सच बात तो यह है कि अति पापी मनुष्य सत्संग में जा भी नही सकता।
सत्संग में हरी का वास होता हैं, परमात्मा का निवास होता है । तभी कबीरजी कहते है :
राम परवाना भेजिया, वांचत कबीरा रोय ।
क्या करू तेरी वैकुंठ को, जहाँ साध– संगत नहीं होय ।।
जहाँ साध- संगत न हो अर्थात सत्संग न मिले, वह स्वर्ग भी विवेक- विचारवान को सुखद नही लगता और जहाँ सत्संग होता हैं, वह नरक भी दु:खद नही लगता । सत्संग कि ऐसी महिमा है ।इसलिए हजार काम छोडकर भी सत्संग करना चाहिए ।
कोई बड़ा धनवान हो चाहे बड़ा सम्राट हो, अंत में तो वह धन को, साम्राज्य को यहीं छोडकर चला जाएगा और ब्रह्मविद्या नहीं होगी तो किसी न किसी माँ के गर्भ में जाकर लटकने का, फिर जन्म लेने का और मरने का दुर्भाग्य चालू रहेगा । जिसको सत्संग में रुचि हैं, प्रीति है,श्रद्धा है, वह देर– सबेर ज्ञान पाकर मुक्त हो जाएगा ।
जैसे आपको कोई चीज अच्छी लगती है तो आप उसका त्याग नहीं करते हैं, फैंक नहीं देते हैं, संभालकरघर में रख लेते हैं । चाहे घर छोटा भी हो, कमरे मेंजगह नहीं हो तो छत पर भी रख देते हो । ऐसे ही जो लोग सत्संग में जाते हैं, उन्हें सत्संग की कोई- न- कोई बात तो अच्छी लगती ही है ।जोबात अच्छी लगे उसे अगर दिलरूपी घर मेँ जगह नहीं है तो दिमाग रूपी छत में भी रख लेंगे तो कमी-न-कभी काम आएगी ।
बिनु सत्संग न हरिकथा, ते बिनु मोह न भाग ।
मोह गये बिनु रामपद, होवहिं न दृढ़ अनुराग ।।
सत्संग में प्रीति होना बड़े भाग्य की बात है और सत्संगसे वंचित होना, सत्संग का त्याग करना महान् पापों का फल है । वशिष्ठजी कहते हैं कि, चांडाल के घर की भिक्षा एक बार मिले, वह भी ठीकरे में लेकर खाना पड़े पर जहाँ ज्ञान का सत्संग मिलता हो वहीं पड़े रहना चाहिए ।
किसी आदमी में सामान्य विवेक भी नहीं है, वहयदि सत्संग सुनता रहेगा तो उसका सामान्य विवेकजगेगा और प्रीतिपूर्वक, आदरपूर्वक, श्रद्धा से सत्संगका मनन करेगा तो मुख्य विवेक में उसकी गति होजाएगी । सामान्य विवेक जगने से आदमी के चित्तमें धर्म की उत्पत्ति होती है ।वह धर्मात्मा बन जाताहै ।मुख्य विवेक जगता है और वह दृढ़ हो जाताहै तो आदमी महात्मा बन जाता है ।महात्मा वह हैजो अपने शरीर सहित संपूर्ण जगत के पदार्थों कोनाशवान समझकर, अविनाशी आत्मा में प्रीतिपूर्वकस्थित हो जाता है ।जो अपने-आपको जान लेताहै, वही परम विवेकी है ।उसने ही जगत में बड़ाकाम कर लिया जिसने अपने-आपको जान लिया ।
जहाँ में उसने बड़ी बात कर ली ।
जिसने अपने आपसे मुलाकात कर ली ।।