जब सास बन गयी माँ...
दशरथ जी अपने चारों पुत्रों का विवाह करा के बहुओं को लेकर घर पहुँचे, उसके बाद कौशल्याजी तथा अन्य लोग जो जनकपुर नहीं गये थे, वे दशरथजी के श्रीमुख से विवाह की वार्ता सुनकर गदगद हो रहे थे ।
कौशल्याजी ने कहाः “महाराज ! जनकजी के विषय में बताने की कृपा कीजिये ।” तब दशरथों की आँखों से झर-झर आँसू बरसने लगे । कौशल्याजी ने अनुमान लगाया कि शायद जनकजी ने दहेज कम दिया है इसीलिए दशरथजी दुःखी हैं तो कहाः “महाराज ! भगवान ने हमें बहुत कुछ दिया है दहेज की आवश्यकता नहीं है । बस, चार कन्याएँ मिल गयीं न, मिथिलानरेश ने उन्नीस-बीस रखा हो तो भी क्या फर्क पड़ता है ?” यह सुनकर दशरथजी और गम्भीर हो गये । नेत्रों से आँसू झरने लगे ।
ʹअपने कारण कोई रोये, पीड़ित हो यह अच्छा नहींʹ – यह सोचकर कौशल्याजी राजा दशरथ से माफी माँगने लगीं- “महाराज ! मैंने पूछकर आपको दुःखी किया है, मुझे क्षमा करें ।”
तब दशरथजी ने कहाः “जो अवसर मिथिलानरेश को मिला था, कन्यादान करके कन्याओं को विदा करने का, वह अवसर हमें कभी नहीं मिलेगा । मुझे तो चार बेटे ही हैं ।” कौशल्याजी ने ढाढस बँधायाः “महाराज ! चार बहुएँ भी तो आपकी चार पुत्रियाँ ही हैं । इन्हें ही अपनी बेटियाँ मान लीजिये ।” दशरथ जी ने कहाः “नहीं नहीं, कौशल्ये ! मिथिलानरेश ने अपनी बेटियों का बाल्यकाल से युवावस्था तक पालन-पोषण कर सुशिक्षित किया । विदाई के समय वे भी झर-झर आँसू बरसा रहे थे । कन्या को वर्षों तक पाल-पोसकर माँ-बाप जब उसकी विदाई करते हैं, तब उनके हृदय में कैसी व्यथा होती होगी, यह तो वे ही जानें ! उऩकी व्यथा याद करके मेरा हृदय व्यथित हो रहा है । ʹदहेज कम मिला हैʹ – ऐसा तो मुझे सपने में भी नहीं होता । दहेज देखकर खुश होने वाले और दहेज की कमी से दुःखी होने वाले लोग तो बहुत छोटी मति के होते हैं । कौशल्ये ! मुझे मिथिलानरेश की पीड़ा याद आती है, उससे मैं पीड़ित हो रहा हूँ ।”
फिर बहुओं को बुलाकर दशरथजी ने उपदेश दिया । बाद में कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी गदगद कंठ से भावभरे शब्दों में बोलेः “पुत्रवधुएँ अपने माता-पिता, घर-परिवार, सहेलियों व स्नेहियों को छोड़कर तुम्हारे घर में आयी हैं । इन्हें यह जगह नयी लगती होगी । तुम लोग इनको कैसे रखोगी ?”
“महाराज ! हम इन्हें अपनी बेटियों की नाईं स्नेह से रखेंगे ।”
तब महाराज ने बहुत भावभरा उपदेश दियाः
बधू लरिकनीं पर घर आई । राखेहु नयन पलक की नाईं । । (बालकाण्डः 345.4)
बहुएँ अभी कम उम्र की हैं, पराये घर आयी हैं । इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की सब प्रकार से रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे ही इनको सुख पहुँचाना) ।
बहुओ ! तुम भी सासुओं को हृदय में ऐसे समा लेना कि सासुओं को लगे नहीं कि बहुएँ पराये घर की हैं ।
सासु का कर्तव्य है कि बहुओं को अपने हृदय में, अपनी गोद में जगह दें । बहुओं का कर्तव्य है कि सास-ससुर को अपने दिल में जगह दे, सासु के दिल को जीत ले, सासु की अंतर्यामी बने । सासु का कर्तव्य है कि बहू की अंतर्यामी बने । पत्नी का कर्तव्य है कि पति की अंतर्य़ामी बने, मौसम के अनुरूप पति के लिए भोजन-छाजन आदि की व्यवस्था करे और पति का कर्तव्य है कि पत्नी के विकास का एक स्तम्भ बन जाय । यदि सास बहू की और बहू सास की अंतर्यामी बन जाय तो कुटुम्ब, कुल खानदान स्नेह से भरा रहेगा ।
बिटिया ! लड़-झगड़के, बिखर के क्यों अपनी शक्तियों का ह्रास करना ? बहुरानियाँ ! ससुराल में, कुटुम्ब में कुछ उन्नीस-बीस हो जाय, कभी सासु ने, ससुर ने या जेठ ने कुछ कह दिया और आपका मन उद्विग्न हो गया हो तो माँ या बाप को अथवा स्नेहियों को खबर करके उनको दुःख में क्यों डुबाना ? उस वक्त तुम्हारा जो मन था, थोड़ी देर के बाद वैसा नहीं रहेगा, बदल जायेगा परंतु वे लोग जब-जब तुम्हारी व्यथा को याद करेंगे, व्यथित होते रहेंगे ।
तीनों रानियों और चारों बहुओं का हृदय भर गया । मानों स्नेह की सरिता में सब एक हो रहे हैं । सासुएँ अलग दिखती हैं, बहुएँ अलग दिखती हैं, कुटुम्बी अलग दिखते हैं किंतु अलग-अलग शरीरों में जो अलग नहीं है, उस परमात्मा की प्रेमधारा में सब एकाकार हो रहे हैं ।
अयोध्या के सम्राट का, वशिष्ठजी के इस सत्शिष्य का कैसा सदुपदेश है ! क्या अपने घर में तुम ऐसी प्रेमधारा नहीं बहा सकते ?
ससुर का कर्तव्य है कि दशरथ जी की नाईं अपने कुल खानदान में आयी हुई बहुओं का सत्शिक्षण दे । सासु का कर्तव्य है कि बेटी और बहू में झगड़ा हुआ है तो बहू का थोड़ा पक्ष ले । जमाई और बेटी में ʹतू-तू मैं-मैंʹ हो जाय तो जमाई का थोड़ा पक्ष ले । अपने वालों से न्याय, दूसरे से उदारता – यह दिलों को व कुटुम्ब को जोड़कर रखता है । दशरथजी ने परिवार को इतने बढ़िया ढंग से जोड़ा कि बड़ा हादसा हुआ, रामराज्य के बदले रामवनवास हुआ फिर भी परिवार अंदर से टूटा नहीं । सबने उस हादसे को सहन कर लिया । कौशल्याजी या सुमित्रा जी ने कैकेयी को खरी-खोटी नहीं सुनायी । सासु-बहू अथवा बहू-बहू या भाई-भाई आपस में लड़े नहीं । सबके हृदय में एक दूसरे के लिए सम्मान है । सबके हृदय में छुपे हुए हृदयेश्वर को देखते हुए कुटुम्ब के सभी लोग स्नेह से जीते रहे ।
पवित्र आत्मा भरत को राज्य मिलता है पर वह राज्य का भोगी नहीं बनता । राम भैया को बुलाने जाता है । भैया नहीं आ रहे हैं तो उनकी चरणपादुकाएँ लाता है । पादुकाएँ सिंहासन पर हैं और स्वयं दास की नाईं प्रतिदिन उन पादुकाओं को प्रणाम करके भरत तपस्वी का जीवन बिताते हुए राज्य करते हैं । हे भारतीय संस्कृति ! कैसी है तेरी उदारता !
आप सुखी होने में वो मजा नहीं, जो औरों को सुखी रखने में है । इससे आपको परमात्म-सुख की प्राप्ति हो जायेगी ।