घर-घर में बहे प्रेम की गंगा
मेरठ (उ.प्र.) में रामनारायण व जयनारायण नाम के दो भाई रहते थे । उनकी एक छोटी बहन थी – प्रेमा । उनके माता-पिता स्वर्गवासी हो गये थे । बड़े भाई रामनारायण जमींदार थे और छोटे भाई जयनारायण वकील बन गये थे ।
रामनारायण व प्रेमा सत्संग, कीर्तन, प्रभुभक्ति में रुचि रखते थे तथा जयनारायण पाश्चात्य जीवनशैली से प्रभावित थे । प्रेमा जब विवाह योग्य हुई तब दोनों भाई उसके लिए सुयोग्य वर खोजने लगे । रामनारायण धर्मनिष्ठ व सच्चरित्रवान वर खोजने लगे । इसी बात को लेकर दोनों भाइयों में मनमुटाव हो गया । जयनारायण ने घर छोड़ दिया और अपनी पत्नी को लेकर दूसरे मोहल्ले में रहने लगे । रामनारायण ने प्रेमा का विवाह एक सच्चरित्र युवक के साथ कर दिया ।
समय बीता । एक दिन प्रेमा ससुराल से अपने बड़े भाई के घर आयी हुई थी । एक शाम को वह झूला झूल रही थी कि जयनारायण किसी कार्यवश उधर से गुजरे । प्रेमा की जयनारायण की तरफ पीठ थी इसलिए वह भाई को देख नहीं पायी परंतु उन्होंने बहन को देख लिया । वकील बाबू ने सुना कि प्रेमा गा रही हैः
भगीरथ की प्रभुप्रीति तपस्या, गंगा धरती पे लायी ।
घर–घर में बहे प्रेम की गंगा, रहे न कोई दिल खाली ।।
हर दिल बने मंदिर प्रभु का, यदि गुरुज्ञान ज्योति जगा ली ।
मेरे भैया दोनों नारायण, मैं हूँ ईश्वर की लाड़ली ।।
वकील बाबू ने सोचा, ʹजिसे मैंने भुला दिया था, वह मुझे अब भी स्मरण कर रही है !ʹ
बात हृदय को चोट कर गयी । वे बहन और भाई के लिए तड़पने लगे । आखिर संस्कारी खानदान का खून रगों में था ! अपनी भूल के लिए पश्चाताप करते हुए जयनारायण उदास रहने लगे । खाने पीने से भी उनकी वृत्ति हट गयी । उद्विग्नता अत्यंत बढ़ने के कारण एक दिन उन्हें तेज बुखार हो गया ।
एक हफ्ते बाद प्रेमा ने सुना कि जयनारायण बहुत बीमार हैं । वह बड़े भाई के कमरे में गयी और बोलीः “छोटे भैया बहुत बीमार हैं ।”
“मुझे पता है तुम उससे मिलने जाना चाहती हो लेकिन प्रेमा ! वहाँ तुम्हें व्यर्थ ही अपमानित होना पड़ेगा यह पहले ही समय़ लेना ।”
“भैया ! मान-अपमान आया-जाया करता है पर अपनी संस्कृति का ʹहृदय की विशालताʹ व मिल-जुलकर रहने का सिद्धान्त शाश्वत है । आप ही तो गाया करते हैं-
सत्य बोलें झूठ त्यागें मेल आपस में करें ।
दिव्य जीवन हो हमारा यश ʹतेराʹ 1 गाया करें ।।“(1.प्रभु का)
“शाबाश ! तुम्हारे विचारों की सुवास जयनारायण के घर को भी महकायेगी ।”
जयनारायण के घर पहुँचकर प्रेमा ने देखा कि वे पलंग पर बेहोश पड़े हैं । एक ओर रमा भाभी खड़ी है व दूसरी ओर डॉक्टर खड़े हैं ।
डॉक्टरः “इनके शरीर में रक्त की बहुत कमी हो गयी है, नसें तक दिखायी दे रही हैं ।”
रमाः “कुछ भी खाते-पीते नहीं हैं । कभी-कभी बस इतना ही कह उठते हैं- मेरे भैया दोनों नारायण, मैं हूँ ईश्वर की लाड़ली । ।”
“यह सन्निपात का लक्षण है ।”
“डॉक्टर साहब ! मेरे पास जो कुछ है सब ले लीजिये परंतु इनके प्राण बचा लीजिये ।”
“प्राण बचाना परमात्मा के हाथ में है । डॉक्टर का काम कोशिश करना है । इन्हें तत्काल खून चढ़ाना पड़ेगा ।”
“मेरा खून ले लीजिये ।”
“आप गर्भवती हैं, आपका खून लेना ठीक नहीं ।”
“डॉक्टर साहब ! मैं स्वस्थ हूँ, मेरा खून ले लीजिये !” – दरवाजे में खड़ी प्रेमा बोल उठी ।
रमाः “नहीं प्रेमा ! आप रहने दीजिये ।”
“क्यों भाभी ?”
“हमने आपसे बहुत गलत व्यवहार किया है । आपकी शादी में भी हम लोग शामिल नहीं हुए थे और एक पैसा भी हमने खर्च नहीं किया । आप हमसे नाराज नहीं हैं ?”
“बहन का आदर्श यह नहीं है कि वह किसी भूल के कारण अपने भाई से सदा के लिए नाराज हो जाय । मेरे गुरुदेव कहते हैं-
बीत गयी सो बीत गयी, तकदीर का शिकवा कौन करे ।
जो तीर कमान से निकल गया, उस तीर का पीछा कौन करे । ।“
डॉक्टर ने प्रेमा का रक्त समूह जाँचकर खून ले लिया और वकील साहब को चढ़ा दिया ।
एक हफ्ते में ही जयनारायण स्वस्थ हो गये । वे रामनारायण के घर आये । तब प्रेमा वहीं थी । जयनारायण ने बड़े भाई के चरणों पर अपना सिर रख दिया व सिसक-सिसक कर रोने लगे । रामनारायण ने उन्हें उठाया और छाती से लगा लिया । सभी की आँखों से प्रेमाश्रु बरसने लगे ।
“भाई साहब ! मुझे क्षमा कर दीजिये । मुझे अपने घर में रहने की अनुमति दीजिये ।”
“अनुमति ?…. यह तुम्हारा ही घर है ।”
“भैया ! आप पिताजी के समान हैं । आपने मुझे पढ़ाया-लिखाया, योग्य बनाया है और मैंने….”
“दुःखी मत होओ । सुबह का भूला शाम को घर लौट आये तो उसे भूला नहीं कहते । तुम आज ही यहाँ आ जाओ ।”
“प्रेमा ! मेरी हिम्मत नहीं होती कि तुम्हारी नजर से नजर मिला सकूँ । मैं भाई का आदर्श भूल गया परंतु तुम बहन का आदर्श नहीं भूली ।”
“हिंदू संस्कृति व संतों के अऩुसार बहन का जो आदर्श है, उसी का मैंने पालन किया है । यह तो मेरा कर्तव्य ही था । यदि तारीफ करनी ही है तो मेरी नहीं, अपनी संस्कृति व संतों की करो ।”
दूसरे दिन जयनारायण अपनी पत्नीसहित उस घर में लौट आये । सत्संग के संस्कारों ने, संस्कृति के आदर्शों ने टूटे हुए दिलों को प्रेम की डोर से जोड़ दिया ।
हे भारत की धरा ! हे ऋषिभूमि ! तेरे कण-कण में अभी भी कितने पावन संस्कार हैं ! हे भारतवासियो ! हे दिव्य संस्कृति के सपूतो ! आप अपने महापुरुषों के स्नेह के, हृदय की विशालता के संस्कारों को मत भूलो । ये संस्कार घर-घर में, दिल-दिल में प्रेम की गंगा प्रकटाने का सामर्थ्य रखते हैं ।