तुम हो पथिक साधना पथ में…
तुम हो पथिक साधना पथ में, समझ–समझकर पैर बढ़ाना ।
अविनाशी के सम्मुख होकर, नश्वर में मत प्रीति फंसाना ।।
दृढ़ संकल्प और साहस के साथ, प्रेम को पूर्ण बनाकर ।
आकृति नहीं किंतु तुम अपनी, परम विरागी प्रकृति बनाकर ।।
शांत स्वस्थ्य¹ समता में रहना, कभी न अपना लक्ष्य भुलाकर ।
पूर्ण तृप्ति संतुष्टि मिलेगी, अपने में ही प्रभु को पाकर ।।
आकर योग भूमिका में, अब भोग–भूमि में लौट न जाना ।
यदि तुम अपना मान किसीको, मन में ममता प्यार लिए हो ।।
और साथ ही शान-मान के, पद उपाधि अधिकार लिए हो ।
भौतिक जीवन रक्षा के हित, धन वैभव का भार लिए हो ।।
भय–लालाचवश किसी व्यक्ति का, अब भी यदि आधार लिए हो ।
तब तो तुम बोझिल हो देखो, बहुत कठिन है पैर उठाना ।।
देखो कितने अविवेकी जन, मोहनिशा में ही सोते हैं ।
दुःखद स्वप्न में गुरुवक्यों से, कोई जाग्रत भी होते हैं ।।
ज्ञानवान² भी सुखासक्तिवश, जग में मूढ़ बने होते हैं ।
आत्मज्ञान से वंचित रहकर, यहाँ व्यर्थ जीवन खोते हैं ।।
साथ न देगा सदा जगत में, जिसे मोहवश अपना माना ।
साधन पथ में लक्ष्य न भूलो, यही तुम्हारा मुख्य काम है ।।
वहीं तुम्हें विश्राम मिलेगा, जहाँ तुम्हारा परम धाम है ।
पर में नहीं स्वयं में रुकने से, मिलता सबको विराम है ।।
जिसका आना जाना रहता, यहाँ उसीका पथिक नाम है ।
बाहर नहीं स्वयं में ही है, सबका निश्चित सत्य ठिकाना ।।
तुम हो पथिक साधना पथ में, समझ–समझकर पैर बढ़ाना .…
– संत पथिकजी
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- स्व अर्थात् आत्मा में स्थित
- ज्ञान की ऊँची बातें सुनने–सुनानेवाले,
पढ़ने–पढ़ानेवाले किंतु आत्मसाक्षात्कार न किए हुए