वीरांगना रानी दुर्गावती
जब हमें उन राजरानियों की याद आती है जिनकी पोशाक खून से भीगी हैं, जिनके दाहिने हाथ में तलवार शत्रुओं का खून पीने के लिए लपलपा रही है, जो घोड़े पर सवार होकर रण में दानव दलिनी दुर्गा की तरह दानवों के दमन में व्यस्त है । हमारा सिर उनके पूज्य पादपद्मों पर आप-से-आप नत हो जाता है ।
रानी दुर्गावती इसी तरह की एक वीरहृदया नारी थी, जिसने गढ़मंडल के विकट रण में यवनों के दांत रंग दिए । रानी दुर्गावती का चरित्र विलक्षण है ; उसने अपनी वीरता, शक्ति और रण कुशलता से अपने लिए इतिहास में वह स्थान बना लिया है, बड़े-बड़े वीरों को कठिन तपस्या करने पर भी नहीं मिलता है । रानी दुर्गावती महोबा के राजा की कन्या और गढ़मंडल राज्य के अधिपति दलपत शाह की सहधर्मिणी थी । दक्षिण भारत में गणमंडल सोलवीं सदी में एक छोटा-सा राज्य था, लेकिन साथ ही साथ अपने अपार वैभव और संपत्ति के लिए वह दूर-दूर के राज्यों में भी महती ख्याति प्राप्त कर चुका था । थोड़े ही दिनों तक सुहाग-सुख भोगने के बाद दुर्गावती पर वैधव्य का वज्र टूट पड़ा । परंतु उसने धैर्य तथा साहस से काम लिया । अपने प्यारे पुत्र नारायण की देखरेख का भार उसने अपने कंधे पर लिया और नीतिज्ञता और कुशलता से राज्य का प्रबंधन किया । उसके खजाने की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी । उसने पंद्रह साल तक निर्विघ्न राज्य किया । गढ़मंडल का ध्वज आसमान का चुंबन करता हुआ यवनों को चुनौती दे रहा था । जब तक दुर्गावती की भुजाओं में बल है उसके हाथ में तलवार है, गढ़मंडल किसी की भी अधीनता स्वीकार न करेगा । रानी की सेना अत्यंत सुसंगठित थी । उसमें भील अधिक संख्या में थे ।
इस समय भारत का सम्राट अकबर था । उसे अब तक भारत की सार्वभौम सत्ता प्राप्त नहीं हुई थी । हुमायूं को स्वर्ग गए केवल कुछ ही साल बीते थे कि अकबर को अपने खोए साम्राज्य को फिर जीतने की सनक सवार हुई । राजपूत रियासत को अपने पक्ष में लाने के लिए वे तरह-तरह की योजनाएँ बना रहा था । राजपूताने की बहुत-सी रियासतें उसके कपट जाल में पड़ चुकी थी । उनकी स्वाधीनता का अपहरण हो चुका था । अकबर सुदूर प्रांतों पर विजय करने के लिए सेनाएँ तैयार कर रहा था लेकिन प्रश्न यह था कि रुपया कहाँ से आए । इसके लिए गढ़मंडल राज्य ही लक्ष्य बनाया गया । उसके आदेश से सेनापति आसफ खाँ एक बहुत बड़ी सेना लेकर चल पड़ा । उस समय गढ़मंडल अनाथ था । रानी विधवा हो चुकी थी, फिर भी वीर रानी दुर्गावती ने आश्चर्यजनक पराक्रम दिखला कर दुश्मनों की शान मिट्टी में मिला दी । यद्यपि वह हार गई, फिर भी यह उसकी जीत ही थी । नारायण भी 18 साल का हो चुका था मां और बेटे ने जमकर युद्ध किया । रानी मुगलों के आक्रमण से तनिक भी विचलित नहीं हुई । उसने बहादुर सैनिकों से कहा- ‘देश पर मर मिटने वाले वीरो ! तैयार हो जाओ आज तुम्हारी जन्मभूमि विपत्ति की सूचना पाकर क्रंदन कर रही है । उसकी स्वाधीनता की रक्षा करना तुम्हारा परम धर्म है । तुम दुश्मनों को दिखला दो कि जब तक एक भी राजपूत जीता रहेगा तब तक गढ़मंडल पर मुगलों का शासन नहीं हो सकेगा । मैं जीते जी गढ़मंडल में शत्रुओं को पैर ना रखने दूंगी । वीरो ! चलो मेरे साथ गढ़मंडल की कीर्ति अमर करने ! शत्रुओं पर विजय विजय प्राप्त करो अथवा रणयज्ञ में प्राणों की आहुति देकर अक्षय यश और दुर्लभ स्वर्ग-सुख प्राप्त करो । राजपूत सैनिकों की नसों में बिजली दौड़ गई । आंखों से चिंगारियाँ फूटने लगी । रानी ने कहा ‘माना, कि यवनों की शक्ति बर्बरता की सीमा पार कर चुकी है; बाबर के वंशज ने विधवा की रियासत पर हमला बोल दिया है । परंतु जिस समय तुम लोग रण में कूद पड़ोगे एक-एक हिंदू वीर सैकड़ों यवनों को मार भगाएगा । तुम अपनी इस वीर माता की सहायता करो । रानी की ‘जयनाद’ से आकाश गूंज उठा । सैनिक मुगल सेना पर टूट पड़े । गाजर-मूली की तरह काटते हुए उन्होंने दो बार मुगलों को हराया । आसिफ खान ने कूटनीति से काम लिया । गढ़मंडल के ही एक पातकी सैनिक को काफी घूस देकर उसने अपना काम बना लिया । दुर्गावती साक्षात रणरंगमयी भवानी दुर्गा की तरह लड़ाई के मैदान में शत्रु सेना का विनाश करने लगी । उसके तेज बाण दुश्मनों को मटिया मेट करने लगे । परंतु मुट्ठी भर राजपूत अधिक देर तक विशाल मुगल सेना के सामने ठहर न सके । रानी घायल हुई, उसकी बाईं आंख में आकर अचानक तीर लगा । निकालने का प्रयत्न करने पर भी वह नहीं निकला फिर भी वह वीरांगना लड़ती रही । थोड़ी ही देर में सारी राजपूत सेना में हाहाकार मच गया । वीर पुत्र नारायण रानी के नयनों का तारा, जो रानी के हाथी के बगल में घोड़े पर सवार होकर मुगलों से लोहा ले रहा था दुश्मन के एक बाण से चल बसा । साध्वी रानी पुत्र-वियोग में भी कर्तव्य पथ से विचलित ना हुई । उसने लड़ाई जारी रखी । पुत्र का शव उसकी आंखों के सामने से दूर हटा लिया गया । परंतु सहनशक्ति की भी सीमा होती है रानी बुरी तरह घायल हो गई । आंखों तले अंधेरा छा गया । जब विजय की कोई आशा नहीं रह गई, तब देखते- ही- देखते उस वीरांगना ने कमर से कटार निकालकर अपनी छाती में भोंक ली । शत्रु तमाशा देखते रह गए । कितना महान पराक्रम और सतीत्व का बल उसे प्राप्त था, इसका निर्णय इतिहासकार भी नहीं कर सके । रानी रणगंगा में अवगाहन करके पवित्र हो गई । गढ़मंडल पर अकबर का अधिपत्य हो गया । दिल्ली का खजाना रत्नों, मोतियों से भर गया; लेकिन दुर्गावती-रत्न पर यवनों का अधिकार ना हो सका ।