सती अरून्धती
पतिव्रता शिरोमणि अरून्धती का नाम तीनों लोकों में विख्यात है । वे ब्रह्मर्षि वसिष्ठजी की धर्मपत्नी हैं । इनके अनुपम पातिव्रत्य की कहीं भी तुलना नहीं हो सकती । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य- ये छः दोष जो प्राणिमात्रके स्वाभाविक शत्रु हैं, अरुन्धती देवी की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं पाते । इनमें क्षमा, दया, करुणा, शान्ति, अहन्कारशून्यता, लज्जा, विनय, विद्या, विवेक, ज्ञान-विज्ञान आदि सदगुणों का सहज विकास है । इनका मन राग-द्वेष तथा शत्रु-मित्र आदि की भावना से सर्वथा रहित है । इनका जीवन नारी-जगत के लिये आदर्श है । इनका स्मरण तन, मन और प्राणों को पवित्र करनेवाला है ।
हम लोग मानते हैं, अरुन्धतीजी अजर-अमर हैं । रूप, गुण एवं तपस्या में इनकी समानता करनेवाली तीनों लोकों में दूसरी कोई स्त्री नहीं है । इनकी आयु सात कल्पों तक की मानी गयी है । ये सदा और सर्वत्र अपने पति के ही साथ रहती हैं ।
सप्तर्षि-मण्डल में देवी अरुन्धती के अतिरिक्त दूसरी किसी ऋषि-पत्नी ने स्थान नहीं पाया है । विवाह के अवसर पर वर और वधू को अरुन्धती का दर्शन कराया जाता है । इसलिये कि वधू में अरून्धती के गुणों का विकास हो । उसका अखण्ड सौभाग्य बना रहे अरुन्धती की उत्पत्ति के विषय में पुराणों में अनेक तरह के प्रसंग मिलते हैं । कहीं तो इन्हें दक्ष प्रजापति की कन्या बतलाया गया है और कहीं इनकी उत्पत्ति महर्षि मेधातिथि के यज्ञ में अग्निकुण्ड से हुई बतायी गयी है । ये बाल्यकाल में भी कभी धर्म का अवरोध नहीं करती थीं । इसीसे इनका नाम अरुन्धती पड़ा ।
चन्द्रभागा के तटपर महर्षि मेधातिथि का तापसारण्य नामक आश्रम था । उसी में कुमारी अरुन्धती का लालन-पालन हुआ । अपनी पाँच वर्ष की छोटी अवस्था में ही इन्होंने अपने सदगुणों से सम्पूर्ण तापसारण्य को पवित्र कर दिया । एक दिन अरुन्धती जब अपने पिता मेधातिथि के पास ही बालकोचित खेल-कूदमें लगी थीं, उसी समय स्वयं ब्रह्माजी उनके आश्रम पर पधारे । महर्षि ने ब्रह्माजी के चरणों में मस्तक झुकाकर उनका विधिवत् पूजन किया और कुमारी अरुन्धतीसे भी प्रणाम करवाया ।
ब्रह्माजी ने कन्या को आशीर्वाद दे महर्षि मेधातिथि से कहा – ‘मुने ! अब अरुन्धती को शिक्षा देने का समय आ गया है । अतः इसे सती-साध्वी स्त्रियों के पास रखकर शिक्षा दिलवानी चाहिये । कन्या की शिक्षा पुरुषों द्वारा नहीं होनी चाहिये । स्त्री ही स्त्रियों को समुचित शिक्षा दे सकती है । तुम्हारे पास ऐसी कोई स्त्री नहीं हैं, जो इसे शिक्षा दे सके ; इसलिए तुम अपनी कन्या को बहुला और सावित्री के पास रख दो । तुम्हारी कन्या उनके पास रहकर शीघ्र ही परम गुणवती हो जायगी ।’
मेधातिथि ने ब्रह्माजी की यह आज्ञा शिरोधार्य की और उनके चले जानेपर वे कन्या को लेकर सूर्यलोक में गये । वहाँ उन्होंने सूर्यमण्डल में स्थित पद्मासन पर विराजमान सावित्री देवी का दर्शन किया । उस समय बहुला मानस पर्वत पर जा रही थीं ; अत: सावित्री देवी भी वहीं के लिये चल पड़ीं । वहाँ जाने का कारण यह था कि प्रतिदिन सावित्री, गायत्री, बहुला, सरस्वती और द्रुपदा मानस पर्वतपर एकत्रित हो धर्म-चर्चा तथा लोक-कल्याण की कामना किया करती थीं । महर्षि मेधातिथि ने उन सब माताओं को प्रणाम किया और इस प्रकार कहा – ‘देवियो ! यह मेरी कन्या अरुन्धती है । इसके उपदेश का समय प्राप्त हुआ है ; इसीलिये इसको लेकर मैं आप लोगों की सेवा में आया हूँ । अब यह आपके ही पास रहेगी । आप लोग इसे ऐसी शिक्षा दें, जिससे यह साध्वी एवं सच्चरित्र बन सके । ब्रह्माजी की ऐसी ही आज्ञा है ।’ सावित्री और बहुला ने कहा –‘महर्षे ! तुम्हारी कन्या पर भगवान् विष्णु की कृपा है ; अत: सच्चरित्र तो यह पहले से ही हो चुकी है ; किंतु ब्रह्माजी की आज्ञा होने के कारण हम इसे अपने पास रख लेती हैं । यह यहीं रहकर शिक्षा प्राप्त करे । पूर्वजन्म में यह ब्रह्माजी की मानसी कन्या रह चुकी है । अब तुम्हारे तपोबल से तथा भगवान विष्णु की अपार कृपा से यह तुम्हारी पुत्री हुई है । इस कन्या से तुम्हारा और तुम्हारे कुल का तो लाभ होगा ही, समस्त संसार का भी परम कल्याण होगा ।’
तत्पश्चात् मेधातिथि वहाँ से लौट आये । अरुन्धती वहीं सावित्री और बहुला की सेवा में रहकर शिक्षा पाने लगीं । जगन्माताओं की सेवा का सुदुर्लभ अवसर पाकर अरुन्धती अपना अहोभाग्य मानती थीं । इस प्रकार पूरे सात वर्ष बीत गये । स्त्री-धर्म की शिक्षा पाकर अरुन्धती सावित्री और बहुला से भी श्रेष्ठ हो गयीं ।
तदनन्तर एक दिन देवी सावित्री के यह प्रार्थना करने पर की ‘अरुन्धती के विवाह के लिये यही उपयुक्त अवसर है ।’ ब्रह्माजी भगवान् विष्णु तथा शंकरजी को साथ लेकर महर्षि वसिष्ठ के आश्रम की ओर चले । नारदजी महर्षि मेधातिधि को बुला लाये ।
ब्रह्माजी की आज्ञा लेकर मेधातिथि ने अपनी कन्या को आगे करके उन सब देवताओं के साथ प्रस्थान किया । महर्षि वसिष्ठ मानस पर्वत की कन्दरा में समाधि लगाये बैठे थे । उनके मुख-मण्डल से सूर्य की भाँति प्रकाश की किरणें निकल रही थीं । जब समाधि खुली तो मेधातिथि ने निवेदन किया – ‘भगवान ! यह मेरी कुमारी कन्या है । इसने अबतक विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन किया है । आप जहाँ-जहाँ जिस रूप में भी रहेंगे, यह छाया की भाँति आपके पीछे-पीछे चलेगी और सब प्रकार से आपकी सेवा करेगी ।’ महर्षि मेधातिथि की यह प्रार्थना सुनकर वसिष्ठजी ने देखा – ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजी आदि सब देवता उपस्थित हैं । उन्होंने तपोबल से भावी बातों को जान लिया और अरुन्धती का पाणिग्रहण किया । अरुन्धती की आँखें उनके चरणों में जा लगीं । तदनन्तर सब देवताओं ने मिलकर विवाहोत्सव का कार्य सम्पन्न किया । देवताओं ने विविध दुर्लभ सामग्रियाँ और दिव्यगुण एवं मंगलमय आशीर्वाद दिये । विवाह के अवसर पर ब्रह्मा, विष्णु आदि के द्वारा अभिषेक कराते समय जो जल की धाराएँ गिरी थीं, वे ही गोमती, सरयू, क्षिप्रा और महानदी आदि सात नदियों के रूप में परिणत हो गयीं । उनके दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान से समस्त संसार का कल्याण होता है । विवाह के बाद महर्षि वसिष्ठजी अपनी धर्मपत्नी के साथ ब्रह्माजी के दिये हुए विमान में बैठकर इच्छानुसार देवभूमियों में विचरण करते फिरे । तत्पश्चात् हिमालय पर्वत की तलैटी में आश्रम बनाकर दोनों दम्पति दीर्घकाल तक तपस्या करते रहे । इसी आश्रम पर महाराज दिलीप ने अपनी रानी सुदक्षिणा के साथ रहकर कामधेनुपुत्री नन्दिनीका सेवन किया था ।
एक बार अग्रिदेव की पत्नी स्वाहा अरुन्धती का रूप धारण करने लगी, तो उसे सफलता न मिली । उसने लाख चेष्टा की, किंतु वह रूप धारण करना उसके लिये असम्भव हो गया । यह देख स्वाहा अरुन्धतीके पास गयी और हाथ जोड़कर सब बातें कह सुनायी । फिर क्षमा माँगते हुए उसने कहा -‘सतीशिरोमणि अरुन्धती ! आप धन्य हैं । एकमात्र आप ही पातिव्रत्य धर्मका ठीक-ठीक पालन करनेवाली हैं । आप-जैसी दूसरी सती अबतक मेरे देखने में नहीं आयी । जो कन्याएँ विवाह के समय पूर्णतया एकाग्रचित्त हो ब्राह्मण और अग्नि के समक्ष पति का हाथ पकड़ते समय आपका स्मरण करेंगी, उन्हें सुख, धन, अखण्ड सौभाग्य तथा पुत्र की प्राप्ति होगी । मैंने आपके रूप को धारण करने का जो असफल दुःसाहस किया है, उसके लिये आप क्षमा करें ।’
एक बार स्त्रियों के पातिव्रत्य धर्म की जिज्ञासा से सूर्य, इन्द्र और अग्नि तीनों देवता अरुन्धती के पास गये । उस समय वे घड़े में जल लाने के लिये जा रही थीं । देवताओं को देखकर अरुन्धती ने अपना घड़ा एक किनारे शुद्ध भूमिपर रख दिया और तीनों देवताओं की परिक्रमा करके उन्हें प्रणाम किया ; फिर पूछा, ‘आप लोग किस कार्य से यहाँ पधारे हैं, कृपा करके बतलावें ।’ देवता बोले -‘हमारे मन में एक प्रश्न उठा है, जिसका निर्णय कराने के लिये हम आपके पास आये हैं ।’
अरुन्धती बोलीं – ‘आप थोड़ी देर यहाँ आश्रम पर विश्राम करें, तब तक मैं यह घड़ा भरके लाती हूँ । उसके बाद आपका प्रश्न सुनूँगी और यथाशक्ति उत्तर भी दूँगी ।’ तब सूर्य आदि देवताओं ने कहा, ‘देवि ! हम अपने प्रभाव से इस घड़े को भर देते हैं ।’
सूर्य देव ने सारी शक्ति लगा दी किंतु वे घड़े को एक चौथाई से अधिक न भर सके । इन्द्र और अग्रि ने भी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर केवल एक-एक चौथाई भाग भरा । इस प्रकार घड़े का तीन भाग भर गया । बाकी चतुर्थ भाग वे तीनों मिलकर भी न भर सके । तब अरुन्धती ने सती धर्म का वर्णन किया और उसकी महिमा से घड़े का चौथा भाग स्वयं भर गया । देवताओं को अपने प्रश्न का उत्तर मिल गया और वे अरून्धती के चरणों में मस्तक झुकाकर अपने-अपने लोक को चले गये ।
अरुन्धती की महिमा का वर्णन सर्वत्र मिलता है, भारत वर्ष के विभिन्न भागों में वसिष्ठ और अरुन्धती के आश्रम हैं । वसिष्ठजी सूर्यवंशी राजाओं के एकमात्र गुरु रहे हैं ; अतः अयोध्या में भी इनका आश्रम है । अरुन्धतीजी ने अपने पति के साथ अयोध्यापुरी को भी दीर्घकाल तक सुशोभित किया है । सीता जैसी सती शिरोमणि ने जिनके चरणों की वन्दना की है, उन अरुन्धती देवी के सौभाग्य की सराहना कौन नहीं करेगा । आज भी वे सप्तर्षि-मण्डल में रहकर अपने पातिव्रत्य के तेज से प्रकाशित हो रही हैं ।