नारी-जागृति कैसे ?
– स्वामी विवेकानंद
नारी-शक्ति जागृत करने के लिए उन्हें उच्च शिक्षा देने की आवश्यकता है । उच्च शिक्षा अर्थात् ऊँचे चरित्र-निर्माण की शिक्षा ।
हम चाहते हैं कि भारतीय नारियों को ऐसी शिक्षा दी जाय, जिससे वे निर्भय होकर भारत के प्रति अपने कर्तव्यों को भली-भाँति निभा सकें । यही नहीं, वे संघमित्रा, मीराबाई, अहिल्याबाई तथा अनुसूया जैसी भारत की महान देवियों द्वारा चलायी गयी परम्परा को भी आगे बढ़ा सके ।
भारत की नारियाँ त्याग व पवित्रता की प्रतिमूर्ति हैं । त्याग, क्षमा, सहनशीलता तथा दयालुता जैसे सद्गुण इनमें स्वाभाविक रूप से ही विद्यमान होते हैं । परम पिता परमेश्वर द्वारा इन्हें ये सद्गुण सहज में ही प्रदत्त है । इन्हीं सद्गुणों को अपने आचरण में स्वाभाविक रूप से उतारने के लिए पुरुष-वर्ग को वर्षों तक जप-तप करने पड़ते हैं ।
छात्राओं के सामने सर्वदा आदर्श नारी-चरित्र रखकर उनमें त्यागरूप व्रत के प्रति अनुराग उत्पन्न करना होगा । सीता, सावित्री, दमयन्ती, लीलावती तथा मदालसा आदि पतिव्रता व विदुषी नारियों के जीवन-चरित्र कुमारियों को समझा कर उन्हें अपने जीवन को इसी प्रकार गढ़ने की प्रेरणा देनी होगी । उन्हें धर्मपरायण और नीतिपरायण बनाना होगा जिससे वे भविष्य में सुशील तथा उच्च चरित्रवान हों । जहाँ माता सुशील तथा उच्च चारित्रिक गुण से संपन्न होती है वहीं पर महापुरुषों के प्रागट्य की संभावना होती है ।
वैदिक काल में तो मैत्रेयी तथा गार्गी आदि महान नारियाँ ब्रह्मविचार में ऋषितुल्य हो गई थी । सहस्त्र वेदज्ञ ब्राह्मणों की सभा में गार्गी ने ब्रह्मज्ञान के शास्त्रार्थ हेतु गर्व के साथ याज्ञवल्क्य का आह्वान किया था । इन सब विदुषी नारियों को जब उस समय आध्यात्म-ज्ञान की प्राप्ति का अधिकार था, तब फिर आज भी स्त्रियों को वह अधिकार क्यों न रहेगा ?
जिस देश व जाति में स्त्रियों को आदर मिला, उस देश व जाति की ही अधिक उन्नति हुई है । इससे विपरीत आचरण करने वाले देश अथवा जातियाँ कभी उन्नति नहीं कर सकी हैं और न हीं कभी कर सकेंगी ।
मनु महाराज ने ठीक ही कहा है :
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता: ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते,सर्वास्तत्राफला: क्रिया: ।। (मनुस्मृति : ३.५६)
जहाँ पर नारियों का सम्मान नहीं होता, उस देश, जाति तथा परिवार के उन्नति की उम्मीद कभी नहीं की जा सकती ।
यदि तत्त्व-दृष्टि से देखें तो लिंग-भेद का सर्वत्र अभाव हो जाता है । हमें ‘मैं-तुम’ की भूमि में ही लिंग-भेद दिखाई देता है । मन जितना अन्तर्मुख होता जाता है, उतना ही यह भेद-ज्ञान लुप्त होता जाता है । अंत में, जब मन एकरस ब्रह्मतत्त्व में डूब जाता है, तब यह स्त्री, वह पुरुष ऐसा भेद-ज्ञान बिल्कुल नहीं रह जाता ।
यदि पुरुष ब्रह्मज्ञानी बन सकता है तो स्त्रियाँ क्यों नहीं बन सकती ? यदि आनेवाले समय में एक भी नारी ब्रह्मज्ञानी बन जाय तो उसकी प्रेरणा तथा प्रतिभा से हजारों स्त्रियाँ मोहनिशा से जाग उठेंगी । इससे देश तथा समाज का बहुत कल्याण होगा ।