वाणी के दोष
(१) कठोरता :
गाली, कटु वचन अपनेको प्रिय नहीं होते, कठोर वचन तीर के समान हमारे अंतःकरण में चुभते हैं, इसलिए दूसरे को भी कठोर शब्दों के प्रहार से मत मारो । शस्त्रप्रहार से भी बलवान एवं घातक होता । मनुष्यों को शब्दों की चोट ऐसी लगती है कि वे आत्महत्या तक कर लेते हैं या दूसरे की हत्या भी कर देते हैं । कठोर वाणी से घर, समाज, संघ कलह-द्वेष के केन्द्र हो जाते हैं, शांति भंग हो जाती हैं । अतः वाणी में कटुता और कठोरता का न होना अत्यंत आवश्यक है ।
हम अपनी वाणी में कोमलता लायें । बच्चा जब जन्म लेता है तब जिह्वा जन्म से ही रहती है किंतु दाँत बाद में आते हैं । दाँत जब निकलते हैं तब अपनी कठोरता के कारण बहुत कष्ट देते हैं और वृद्धावस्था में जब एक-एक करके उखडते हैं तब भी पीड़ा पहुँचाते हैं, किंतु जिह्वा मृत्युपर्यन्त कोमल ही बनी रहती है । अतः कोमलता अधिक स्थायी एवं सुखद है और कठोरता दुःखप्रद । जैसे जिह्वा कोमल है वैसे ही हमें कोमल वाणी का प्रयोग करना चाहिए, कठोर वाणी का नहीं ।
(२) परनिंदा :
किसीके दोष-दुर्गुणों की चर्चा करना निंदा है । संत कबीरजी ने कहा है :
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय ।।
कबीर हम सब ते बुरे, हमते भल सब कोय ।
जिन ऐसा करि जानिया, मीत हमारा सोय ।।
मनुष्य को अपनी आँख में पड़ा तृण नहीं दिखायी देता, अपनी ही पीठ में पड़ा दाग नहीं दिखायी देता किंतु उन्हीं आँखों से वह विशाल संसार के प्राणी-पदार्थों को देख लेता है । इसी तरह परदोषदर्शन सरल है किंतु अपने दोषों को देखना अत्यंत कठिन है । अपने दोष तो विवेक के नेत्रों से ही देखे जा सकते हैं । दूसरों की निंदा करने की आदत छोड़कर ही हम अपना सुधार कर सकते हैं । यदि सभी लोग अपने-अपने दोषों को सुधारने लग जायें तो पूरे समाज, राष्ट्र और विश्व का सुधार और कल्याण होना निश्चित है । अतः दूसरों से गुण ग्रहण करो दोष नहीं, गुणों की चर्चा करो दोषों की नहीं ।
(३) असत्यता :
जो जैसा है उसको उसी रूप में न कहकर गलत ढंग से प्रयोग करना असत्य या झूठ है । झूठ बोलकर भले ही कोई कुछ समय के लिए अपने दुर्गुणों को छिपा ले किंतु एक दिन उसकी वास्तविकता प्रकट हो ही जाती है । घाव को कितना ही स्वर्ण-आवरण से ढक दो किंतु उसका वीभत्स रूप अवश्य प्रकट होगा । आप नहीं चाहते कि दूसरा कोई झूठ बोलकर आपके साथ छल-कपट, बेईमानी, धोखेबाजी करे, इसलिए आप भी किसीके साथ झूठ बोलकर दुर्व्यवहार न करें । झूठा मनुष्य अविश्वसनीय एवं अनादरणीय होता है । वह स्वयं धोखा खाकर दुःखी होता है या कभी-कभी अपने प्राण भी गँवा बैठता है ।
(४) अश्लीलता :
अश्लील शब्दों का उच्चारण करने से पूरे जीवन पर उसका कलुषित प्रभाव पड़ता है, अन्य लोगों पर भी उसका कुप्रभाव पड़ता है । जो नर-नारी अश्लील वार्ता करते हैं, अश्लील गीत गाते हैं, अश्लील व्यवहार या आचरण करते हैं उनके समीप कोई भी सभ्य, चरित्रवान और भला मनुष्य बैठना नहीं चाहता, उनसे बात नहीं करना चाहता । छोटे-छोटे बच्चे वही सीखते हैं जो बडे-बुजुर्ग, माता-पिता, गुरु या संरक्षक और जिम्मेदार लोग करते हैं । यदि आप चाहते हैं कि आपके अनुगामी शिष्ट और सभ्य नागरिक बनें तो कभी भी अश्लील वार्ता न करें, न दूसरों की अश्लील वार्ता सुनें ।
(५) निरर्थकता :
मनुष्य का कर्तव्य है कि वह ऐसे शब्दों का उच्चारण न करें जो निरर्थक एवं अनर्थक हों । इससे अपने तथा दूसरों के समय और शक्ति का दुरुपयोग होता है । जो वाक्यसंयमी है तथा सदैव सत्य, प्रिय, हित तथा मित बोलता है, उससे निरर्थक शब्द नहीं निकलते ।
(६) अहंकारिता :
जो मनुष्य अहंकारपूर्ण वचनों का उच्चारण करता है उसको पग-पग पर ठोकर खानी पड़ती है क्योंकि अहंकारी का सिर सदा नीचा होता है । जो अपने शरीर, रंग, रूप, बल, धन, विद्या के मद में चूर हैं वे जो कुछ कहते हैं कालान्तर में उसके दुष्परिणाम सामने आते हैं किंतु अपनी आदतों से मजबूर मनुष्य यह नहीं समझता कि हमारा अहंकार हमारे ही विनाश का कारण है । नेपोलियन ने अपनी ताकत के घमंड में एक बार कहा था : “अगर आकाश हमारे ऊपर गिरने लगे तो हम उसे अपने भालों की नोकों पर रोक लेंगे !”
बाद में जब वह निर्वासित था तब उसने कहा था : “बल-प्रयोग संगठन करने की शक्ति नहीं रखता । दुनिया में सिर्फ दो ही ताकतें हैं- एक आत्मा की, दूसरी तलवार की । लेकिन अंत में जाकर आत्मा सदा तलवार पर विजय प्राप्त करती है ।” अतएव वाणी के दोषों का त्याग कर उसके गुणों को ग्रहण करना ही वाणी की शोभा है ।