जीने-मरने की कला
प्रत्येक मनुष्य को जीवन जीने की कला सीख लेनी चाहिए और मौत आये उसके पहले मरने की कला भी सीख लेनी चाहिए । जो जीवन जीने की कला नहीं सीख पाता है वह जीवन भर भारी दुःख उठाता है और जो मरने की कला नहीं सीख पाता है वह बार-बार मरता रहता है ।
आप जीवन में सुख-शांति चाहते हो तो आपको दया, प्रेम, क्षमा परदुःखकातरता आदि सद्गुणों का विकास करना चाहिए और मरकर भी अमर होना चाहते हो तो अमर आत्मा का ज्ञान पाना चाहिए ।
जीवन में क्षमा का गुण लाने से सुख-शांति अपने-आप आ जाती है । आप अपने घर में हो चाहे नौकरी-धंधे में हो, अगर कभी किसीसे कुछ गलती हो जाय तो उसे क्षमा कर देना चाहिए । घर में बहू से कोई गलती हो जाय तो सास को उसके प्रति द्वेष की गाँठ नहीं बाँधनी चाहिए, वरन प्रतिशोध की भावना रखे बिना मातृहृदय की उदारता से, प्रेम से उसे समझाना चाहिए तो दुबारा गलती होने की सम्भावना कम हो जाती है । अगर सास की कोई बात बहू को नहीं जँचती है तो विनम्रता से अपनी बात बताकर मामला हल कर लेना चाहिए, न कि सास के प्रति द्वेष की गाँठ बाँधनी चाहिए । ऐसे ही देवरानी-जेठानी के बीच या भाई-भाई के बीच या बाप-बेटे के बीच या पड़ोसी-पड़ोसी के बीच कुछ अनबन हो जाय तो उदारता और क्षमा व्यवहार करना चाहिए । कभी ऐसा भी होता है कि किसी कारणवश किसीका ‘मूड’ खराब हो गया हो, ‘मूड ऑफ’ हो गया हो तो व्यवहार में जरा गड़बड़ हो जाती है । उस वक़्त सामनेवाला अपने चित्त को समता में रखकर मामला सँभाल लेता है तो बात वहीं पर रुक जाती है, लेकिन सामनेवाला भी वैसा ही उत्तेजना आवेश में आ जाता है तब बात बढ़ जाती है ।
अगर किसी पत्नी को अपने पति ने कुछ कहा या पत्नी से पति की अनबन हो गयी हो, तब वह फ़रियाद के रूप में अपनी सहेली से या मित्र से कहने लगती है कि ‘हमेशा तो ठीक से बातचीत करते हैं । इतनी गलती भी नहीं थी फिर भी नाराज हो गये और ऐसा-वैसा बोलने लगे । ऐसा करना चाहिए क्या ?’ अरे…. ! नाराज हो गये तो हो गये । कोई भी आदमी हमेशा अच्छी तरह से बात करे ऐसा किसने कहा ? मन है, कभी नाराज भी होगा, कभी राजी भी होगा…. कभी कोई ठीक से बात करे कभी ऐसा-वैसा बोले दे तो हमें चाहिए कि खुद को सँभालें । अपनी ओर से सामनेवाले को दुःखप्रद वचन न सुनायें । सामनेवाले का तो चित्त उद्विग्न हुआ हो ६० प्रतिशत और ४० प्रतिशत हम भी गुस्सा करें तो १०० प्रतिशत हो जायेगा । फिर तो पड़ोसी भी खिड़की से झाँकने लगेंगे कि ‘भाई ! क्या हुआ ?’ घर में ही युद्धक्षेत्र ! ऐसा क्यों होता है ? क्योंकि जीने की कला नहीं जानते है ।
अपने पास जो कुछ होता है उसमें सबकी आसक्ति होती है । पति कहता है : ‘ ऐसा ही होना चाहिए’ और पत्नी कहती है : ‘ऐसा ही होना चाहिए ।’ ऐसे ही सास-बहू हो, भाई-भाई हो, देवरानी-जेठानी हो, भाभी-ननद हो, सबकी अपनी-अपनी मान्यताएँ होती हैं कि ‘यही ठीक है…. उसे ऐसा करना चाहिए’ – ऐसी अकड़ में आ जाते हैं आमने-सामने और फिर हो जाता है झगड़ा ! बात तो जरा-सी होती है परंतु उसमें सबकी पकड़ होती है, आसक्ति होती है, आग्रह होता है इसलिए झगडे हो जाते हैं । ‘ऐसा ही होना चाहिए’ का आग्रह होता है तथा उसमें कोई विघ्न डालता है और विघ्न डालनेवाला छोटा होता है तो क्रोध होता है और बड़ा होता है तो भय होता है ।
सारे झगड़ों और सारी मुसीबतों का कारण क्या है ? बाहर के जगत के व्यवहार को अपनी वासनाओं की डोर से बाँध रखने का जो आग्रह है उससे ही क्लेश होता है, दुःख पैदा होता है । मैं तो आपसे यह कहता हूँ कि दुःख पैदा ही न हो, उसकी सावधानी रखनी चाहिए और साथ में यह भी कहता हूँ कि दुःख पैदा न हो उसकी सावधानी रखना भी इतना आसान नहीं है ।
भोजन बनाना है तो बड़े चाव से बनाओ ‘मैं अपने पति के रूप में, बाल-बच्चों के रूप में, भाई-बहन, माता-पिता या अथिति किसीके भी रूप में साक्षात् नारायण को जिमाऊँगी…..’ – इस भाव से स्त्री यदि भोजन बनाये तो उसका भोजन बनाना भी पूजा हो जायेगा । झाडू लगाना है तो भी बड़े चाव से लगाओ, नौकरी-धंधा करते हो तो भी बड़े चाव से करो लेकिन ऐसा नहीं कि दिन भर झाडू ही लगाते रहो, घर संभालते रहो या जीवन भर नौकरी-धंधा करते रहो । घर भी सँभालो, नौकरी-धंधा भी सँभालो इनसे समय बचाकर जप ध्यान भी करो, सत्संग भी सुनो, साधना भी करो ।