नारी और नौकरी
आजकल अपने यहाँ की शिक्षित स्त्रियोंको नौकरियोंका बड़ा चस्का लग रहा है । इस सम्बन्धमें पाश्चात्यों का क्या अनुभव है, इसे भी देख लेना चाहिये । प्रथम महायुद्धके पहले पाश्चात्य देशोंमें भी बड़े घरों की स्त्रियों के लिये नौकरी करके रुपया कमाना अपमान समझा जाता था । केवल गरीब स्त्रियाँ घरों तथा कारखानों में काम करके अपना पेट पालती थीं । युद्धके दिनों पुरुषों के लड़ाई पर चले जाने के कारण प्राय: सभी कामों में स्त्रियों को लगना आवश्यक हो गया । इस तरह उन्हें आर्थिक स्वतन्त्रताका मजा आ गया; परंतु जब युद्ध समाप्त हुआ, तब एक विकट प्रश्न उपस्थित हो गया और बेकारों की संख्या बढ़ने लगी ।’ आवर फ्रीडम ऐंड इट्स रिजल्ट्स’ (हमारी स्वतन्त्रता और उसके परिणाम) नामक पुस्तक में ब्रिटेनके नारी-आंन्दोलन की एक प्रधान नेत्री रे इस्ट्रैची लिखती हैं कि ‘स्त्रियोंकी आर्थिक स्वतन्त्रताके मार्ग में कितनी ही रुकावटें हैं । इनमें कुछ तो प्राकृतिक हैं, जिनमें परिवर्तनकी सम्भावना नहीं और कुछ परम्परागत सामाजिक वहमोंके कारण हैं, जिनके दूर होनेमें बहुत समय लगेगा । गर्भ धारण करके संतान को जन्म देना स्त्रियोंका प्रकृतिसिद्ध कार्य है, जो कभी पुरुषोंके मत्थे नहीं पड़ सकता ।यद्यपि इसमें अधिक समय नहीं लगता, तथापि इसकी सम्भावनाके कारण स्त्रियों को काम मिलनेमें बाधा अवश्य पड़ती है । लड़कों को सिलाई-कढ़ाई, खाना पकाना भले ही सीखाया जाय; पर इन कामों के लिये वे घरों में नहीं बैठ सकते । घरका बहुत कुछ काम स्त्रियोंको ही करना पड़ता है । इसका फल यह होता है कि बाहर काम करनेवाली स्त्रियों पर दोहरा बोझ पड़ता है, जिसमें वे अपना स्वास्थ्य गँवा बैठती हैं । स्त्रियोंकी शारीरिक शक्ति पुरुषों से कम होती है, यह मानना ही पड़ेगा । एक बात यह भी है कि चालीस वर्ष की आयु हो जाने पर स्त्रियोमें शक्ति का ह्रास आरम्भ हो जाता है । इतनी आयु होने पर ही जिसे हटाने की आवश्यकता हो, ऐसे व्यक्ति को काम देनेमें लोगोंको दुविधा होती ही है । स्त्रियों में एक दोष यह भी है कि वे जो काम लेती है, उसके पीछे पड़ जाती हैं । मनोनुकूल काम मिलने पर तो ठीक है; किंतु जब ऐसा नहीं होता, तब इसका स्वास्थ्यपर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ता है । पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियों में ममता भी अधिक होती है । घर-बार, बाल-बच्चों, वृद्ध तथा रोगी आश्रितजनों को छोड़कर जहाँ चाहे चले जाना इनके लिये सहज नहीं होता । स्त्रियों की आर्थिक स्वतन्त्रता का प्रश्न बड़ा जटिल है। अभी तो इसके प्रयोगका आरम्भ ही हुआ है । उनके तथा समाजके जीवन पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, यह समय ही बतायेगा ।’
स्त्रियाँ जब नौकरियोंके पीछे पड़ती हैं, तब घर बिगड़ जाता है । इसका अनुभव पाश्चात्त्य देशों में भी हो रहा है । इंग्लैंड में विवाहिता स्त्रियाँ शिक्षा तथा अन्य कई विभागों में काम नहीं कर सकतीं । कई नगरों की म्युनिसिपल पार्टियों में यह नियम है कि विवाह हो जानेके पश्चात् स्त्रियाँ काम पर से हटा दी जाती हैं । सोवियत रूस में स्त्रियों को पूर्ण स्वतन्त्रता है । लेनिन् की राय थी कि ‘स्त्रियोंको गृहस्थीके कार्य तथा बच्चोंकी परवरिशसे मुक्त कर देना चाहिये, जिससे वे देशकी सेवा कर सके ।’ इसलिए बच्चोंके पालन-पोषण और शिक्षा का भार राष्ट्र ने लिया । बच्चे को जन्म देने हेतु सरकारी सूतिकागृह खोले गये । शिशु-शालाओं में उनका पालन-पोषण होने लगा और बड़े होने पर स्कूलों में उनकी शिक्षा का प्रबन्ध किया गया । इन संस्थाओं में उन्हें सब तरह की सुविधा दी गयी और इनका सन्चालन विशेषज्ञोंके हाथमें सौंपा गया । पर बाद में देखा गया कि इनमें पले हुए बच्चों में वह बात नहीं आती, जो घरके पले बच्चों में होती है । इसका अनुभव स्वयं लेनिन की पत्नी क्रुसकाया ने किया, जिनके हाथ में बहुत दिनों तक शिशु-पालन-विभागका निरीक्षण रहा ।
प्रथम महायुद्ध के बाद जैसी स्थिति उत्पन्न हुई थी, वैसी ही गत महायुद्धके बाद भी देखने में आ रही है । पाश्चात्य देशों में स्त्रियोंको काम मिलना कठिन हो रहा है । कितनी ही स्त्रियाँ रोजगारकी तलाश में भटक रही हैं । स्त्री-पुरुषों की समानताकी हामी भरनेवाले पाश्चात्य देशोंमें भी अभी तक एक ही प्रकार के काम के लिये स्त्री-पुरुषों का समान वेतन नहीं है । ब्रिटेन में समाजवादी सरकार है । वहाँ की पार्लियामेंटमें थोड़े ही दिन पहले यह प्रस्ताव लाया गया था कि दोनों का वेतन समान कर दिया जाय । पर इसका सरकार की ओर से ही विरोध किया गया । उसका कहना था कि ‘यह सिद्धान्त उसे मान्य है, परंतु इसे व्यवहार में लाने से खर्च बहुत बढ़ जायगा, अतः यह अभी सम्भव नहीं ।’ यह समझना भूल है कि घरका काम राष्ट्रका काम नहीं । गत महायुद्ध के समय ब्रिटेनके युद्धमन्त्री ने स्त्रियोंसे अपील करते हुए कहा था कि ‘स्त्रियाँ समझती हैं कि साधारण काम करनेमें उनका समय नष्ट होता है । पर यह बात नहीं । किसी-न-किसीको तो राष्ट्र के लिये आलू बनाना और थालियाँ साफ करनी ही पड़ेंगी । बिना छोटे-छोटे काम सीखे बड़ें कामोंकी योग्यता नहीं आती ।’
कहा जा सकता है कि यह स्वतन्त्रता या समानताका शौक नहीं, जिसके कारण स्त्रियाँ नौकरियोंके पीछे दौड़ती हैं । वास्तव में यह उनकी आर्थिक विवशता है । परंतु आर्थिक दृष्टि से भी नौकरियों से क्या लाभ होता है ? घर पर रहकर स्त्री कितना काम कर सकती हैं। यदि वह नौकरी पर चली जाय तो वही काम मजदूरी देकर दूसरोंसे कराना होगा । तब भी क्या सब काम अपने अनुसार होगा और स्त्री अपनी कमाईसे सबको मजदूरी देकर अपने लिये कुछ बचा लेगी ?
भारत की स्त्रियों में नौकरी का शौक बढ़ने से विकट समस्याएँ उपस्थित होने लगी हैं ।
बच्चोंकी देख-रेखका भार प्रायः घरकी बूढी स्त्रियों पर रहता है ।उन्हें अपने बच्चे सौंपकर काम करनेयोग्य स्त्रियाँ निश्चिन्तताके साथ बाहर मेहनत-मजदूरी करती हैं ।दूसरी बात यह है कि प्रायः स्त्रियाँ अपने घर के पुरुषों के काम में ही उनका हाथ बटाती हैं । किसानके घरकी स्त्रियाँ खेती-बारीमें अपने यहाँ के पुरुषों के साथ पूरी मेहनत करती हैं । व्यावसायीयोंके सम्बन्ध में भी यही बात है | बढ़ई, दरजी, लुहार आदिकी स्त्रियाँ पतियों के काम में इतनी दक्ष हो जाती हैं कि आवश्यकता पड़नेपर बिना पुरुषोंकी सहायताके भी वे अपना काम चला लेती हैं । इसमें एक और सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि बच्चों को बचपन से ही अपने माता-पिताके काम की शिक्षा मिलने लग जाती है । प्रत्येक घर ‘बेसिक ट्रेनिंग सेंटर’ बन जाता है । बच्चोंको योग्य बनाने में एक पैसा खर्च नहीं होता । क्या यह बात बनावटी वातावरणवाली संस्थाओं में आ सकती है, जिनपर इतना रुपया फूँका जा रहा है ? यदि बड़े घरानोंकी स्त्रियाँ भी कोई ऐसा काम सीखें, जिसमें घर में रहकर हीवे अपने पतिका बोझ हलका कर सके तो अच्छा ही है । दफ्तर के अफसरों की सहने की अपेक्षा अपने पतिकी सेवा कहीं अच्छी ! दूसरों के बच्चों को शिक्षा देने के लिये स्कूलों में नौकरी करने के पहले अपने बच्चों की शिक्षा की चिन्ता करनी चाहिये ।
घर यदि पति-पत्नी की साझेदारी है तो उसमें पति बाहर मेहनत करके पैसा लाता है और पत्नी घरमें मेहनत करके अपना हिस्सा पूरा करती है, इसमें अन्याय कहाँ ? केवल पति-पत्नि का कुटुम्ब और दोनों के विभिन्न व्यवसाय ये सर्वथा आधुनिक भाव हैं । बच्चों को किसी कुटुम्बीजन के घर में रखने से स्वतन्त्रता में बाधा पड़ती है । ऐसी दशामें यदि पति-पत्निका कार्यक्षेत्र अलग हुआ तो फिर न बच्चोंकी देख-रेख हो सकती है और न घरकी ही । इन व्यावहारिक अड़चनों के अतिरिक्त इस प्रकार की आर्थिक स्वतन्त्रता में केवल घर के ही नहीं, समाज के विघटन के बीज अन्तनिर्हित हैं । अपने यहाँका यह प्राचीन आदर्श है कि स्त्री, अपना देह और संतान- ये तीनों मिलकर पुरुष होता है । जो भर्ता है, वही भार्या है ; इन दोनोंमें कुछ भी भेद नहीं –
एतावानेव पुरुषो यज्जाया$त्मा प्रजेति ह ।
विप्रा: प्राहुस्तथा चैतद्यों भर्ता स स्पृताड्ना ।। (मनु० ९। ४५)
इसलिये जीवनपर्यन्त स्त्री-पुरुष धर्म, अर्थ, काम आदिमें पृथक् न हों । आपसमें यही उनका धर्म बतलाया गया है –
अन्योन्यस्थाव्यभिचारो भवेदामरणान्तिक: ।
एष धर्म: समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयो: परः ।। (मनु० ९। १०१)
किसी समय पश्चिम भी यही आदर्श मानता था । प्राचीन यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो का, जिनपर बहुत कुछ भारतीय प्रभाव था, कहना था कि ‘वह बड़ा ही सौभाग्यशाली तथा सुखी राष्ट्र है, जहाँ ‘मेरा’ और ‘तेरा’ ये शब्द बहुत कम सुनायी देते हैं ; क्योंकि वहाँ के नागरिकोंका सभी प्रधान बातों में सम्मिलित स्वार्थ होता है । इसी तरह विवाहित स्त्री-पुरुष की पूँजी एक ही होनी चाहिये, जिसमें कि उनमें भी ‘मेरे’ और ‘तेरे’ का भाव न हो ।’ अपने यहाँ अब भी कई घरों की यही रीति है कि पति जो कुछ कमाकर लाया अपनी पत्नी के हाथ में रख दिया ; वह चाहे जैसे खर्च करे, वह घर की रानी है । बैंकों में दोनों के अलग-अलग खाते, अलग हिसाब-किताब, अलग-अलग खर्च- ये सब नये भाव हैं, जिनका परिणाम यह हो रहा है कि ‘संघटन’ ‘संघटन’ चिल्लाते हुए भी सर्वत्र ‘विघटन’ ‘विघटन’ ही देख पड़ रहा है । विश्व में शान्ति स्थापित करने के लिये जिन विद्वानों का दिमाग किसी नयी व्यवस्था की खोज में है, उनमें बहुतों की यही राय है कि इसकी कुन्जी देश या व्यक्तिकी आत्मनिर्भरता में नहीं बल्कि परस्पर-निर्भरता में है । आर्थिक ही क्यों, यदि देखा जाय तो जीवन के सभी विभागों में परस्पर निर्भरता से ही सहयोगी प्रवृत्ति आ सकती है । पर जब उसका घर में ही अन्त कर दिया जायगा तो क्या वह राष्ट्र या विश्व के सम्बन्ध में आ सकती हैं ?