पितरों की तृप्ति व प्रसन्नता हेतु करणीय - श्राद्ध
श्रद्धया दीयते यत्र तच्छ्राद्धं परिचक्षते ।
‘श्रद्धा से जो पूर्वजों के लिए किया जाता है, उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं ।’
‘पद्म पुराण’ में आता हैः ‘श्राद्ध से प्रसन्न हुए पितर आयु, पुत्र, धन, विद्या, राज्य, लौकिक सुख, स्वर्ग तथा मोक्ष भी प्रदान करते हैं ।’
जीवात्मा का अगला जीवन पिछले संस्कारों से बनता है ।अत: श्राद्ध करके यह भावना की जाती है कि उनका अगला जीवन अच्छा हो ।श्रद्धा और मंत्र के मेल से पितरों की तृप्ति के निमित्त जो विधि होती है उसे श्राद्ध कहते हैं।इसमें पिंडदानादि श्रद्धा से दिये जाते हैं।जिन पितरों के प्रति हम कृतज्ञतापूर्वक श्रद्धा व्यक्त करते हैं, वे हमारे जीवन की अड़चनों को दूर करने में हमारी सहायता करते हैं।
पितरों की संतुष्टि हेतु श्राद्ध–विधि में करणीय
- पद्म पुराण के सृष्टि खंड में पुलस्त्य ऋषि भीष्मजी को कहते हैं- पितृकार्य में दक्षिण दिशा उत्तम मानी गयी है । यज्ञोपवीत (जनेऊ) को अपसव्य अर्थात् दाहिने कंधे पर करके किया हुआ तर्पण, तिलदान तथा ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारणपूर्वक किया हुआ श्राद्ध – ये सदा पितरों को तृप्त करते हैं ।
- चाँदी के बने हुए या चाँदी-मिश्रित पात्र में जल रखकर पितरों को श्रद्धापूर्वक अर्पित किया जाय तो वह अक्षय हो जाता है । चाँदी न हो तो चाँदी की चर्चा सुनकर भी पितर प्रसन्न हो जाते हैं । चाँदी का दर्शन उन्हें प्रिय है ।
- पितरों का उद्धारक तथा राज्य व आयु बढ़ाने वाला मंत्रः
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च ।
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः ।।
‘देवताओं, पितरों, महायोगियों, स्वधा और स्वाहा को मेरा सर्वदा नमस्कार है, नमस्कार है ।’ (अग्नि पुराणः 117.22)
श्राद्ध के प्रारम्भ, समाप्ति तथा पिंडदान के समय इस मंत्र का समाहित (सावधान) चित्त होकर 3-3 बार पाठ करने से पितृगण शीघ्र ही वहाँ आ जाते हैं और राक्षसगण तुरंत वहाँ से पलायन कर जाते हैं । यह वीर्य, पवित्रता, सात्त्विक बल, धन-वैभव, दीर्घायु, बल आदि को बढ़ाने वाला मंत्र है ।
- पद्म पुराण में आता है कि जो भक्तिभाव से पितरों को प्रसन्न करता है, उसे पितर भी संतुष्ट करते हैं । वे पुष्टि, आरोग्य, संतान एवं स्वर्ग प्रदान करते हैं । पितृकार्य देवकार्य से भी बढ़कर है अतः देवताओं को तृप्त करने से पहले पितरों को ही संतुष्ट करना श्रेष्ठ माना गया है ।’
पूज्य बापू जी कहते हैं- “श्राद्ध करने की क्षमता, शक्ति, रूपया-पैसा नहीं है तो श्राद्ध के दिन 11.36 से 12.24 बजे के बीच के समय (कुतप वेला) में गाय को चारा खिला दें । चारा खरीदने को भी पैसा नहीं है, ऐसी कोई समस्या है तो उस समय दोनों भुजाएँ ऊँची कर लें, आँखें बंद करके सूर्यनारायण का ध्यान करें- ‘हमारे पिता को, दादा को, फलाने को आप तृप्त करें, उन्हें आप सुख दें, आप समर्थ हैं । मेरे पास धन नहीं है, सामग्री नहीं है, विधि का ज्ञान नहीं है, घर में कोई करने-कराने वाला नहीं है, मैं असमर्थ हूँ लेकिन आपके लिए मेरा सद्भाव है, श्रद्धा है । इससे भी आप तृप्त हो सकते हैं ।’ इससे आपको मंगलमय लाभ होगा ।’
- ‘वराह पुराण’ में श्राद्ध की विधि का वर्णन करते हुए मार्कन्डेयजी गौरमुख ब्राम्हणसे कहते हैं :’विप्रवर ! छहों वेदांगों को जाननेवाले, यज्ञानुष्ठान में तत्पर, भानजे, दौहित्र, श्वसुर, जामाता, मामा, तपस्वी ब्राम्हण, पंचाग्नि में तपनेवाले, शिष्य,संबंधी तथा अपने माता-पिता के प्रेमी ब्राम्हणों को श्राद्धकर्म के लिए नियुक्त करना चाहिए ।’ ‘वायु पुराण’ में आता है : “मित्रघाती, स्वभाव से ही विकृत नखवाला, काले दाँतवाला, कन्यागामी, आग लगानेवाला,सोमरस (शराब आदि मादक द्रव्य ) बेचनेवाला,जनसमाज में निंदित, चोर, चुगलखोर, ग्राम-पुरोहित, वेतन लेकर पढानेवाला, पुनर्विवाहिता स्त्री का पति, माता -पिता का परित्याग करनेवाला, हीन वर्ण की संतान का पालन – पोषण करनेवाला, शुद्रा स्त्री का पति तथा मंदिर में पूजा करके जीविका चलानेवाला – ऐसा ब्राम्हण श्राद्ध के अवसर पर निमंत्रण देने योग्य नहीं है ।”
- श्राद्धकर्म करनेवालों में कृतज्ञता के संस्कार सहज में दृढ़ होते हैं, जो शरीर की मौत के बाद भी कल्याण का पथ प्रशस्त करते हैं।श्राद्धकर्म से देवता और पितर तृप्त होते हैं और श्राद्ध करनेवाले का अंत:करण भी तृप्ति का अनुभव करता है ।बूढ़े-बुजुर्गोंकी उन्नति के लिए आप कुछ करेंगे तो आपके हृदय में भी तृप्ति और पूर्णता का अनुभव होगा ।
औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ को कैद कर दिया था और पीने के लिए नपा-तुला पानी एक फूटी हुई मटकी में भेजता था ।तब शाहजहाँ ने अपने बेटे को लिख भेजा : “धन्य हैं वे हिंदू जो अपने मृतक माता-पिता को भी खीर और हलुए-पूरी से तृप्त करते हैं और तू जिन्दे बाप को एक पानी की मटकी तक नहीं दे सकता ? तुमसे तो वे हिंदू अच्छे, जो मृतक माता-पिता की भी सेवा कर लेते हैं।”
- भारतीय संस्कृति अपने माता-पिता या कुदुम्ब-परिवार का ही हित नहीं, अपने समाज या देश का ही हित नहीं वरन पूरे विश्व का हित चाहती है ।
श्राद्ध के समय हवन करने की विधि
पुरुषप्रवर ! श्राद्ध के अवसर पर ब्राह्मण को भोजन कराने से पहले उनसे आज्ञा पाकर शाक और लवणहीन अन्न से अग्नि में तीन बार हवन करना चाहिए।उनमें ‘अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा।’ इस मंत्र से पहली आहुति , ‘सोमाय पितृमते स्वाहा ।’ इससे दूसरी आहुति एवं ‘वैवस्वताय स्वाहा ।’ कहकर तीसरी आहुति देने का समुचित विधान है । तत्पश्चात् हवन से बचे हुए अन्न को थोड़ा-थोड़ा सभी ब्राम्हणों के पत्रों में परोसे ।
सामूहिक श्राद्ध का लाभ लें
सर्वपित्री दर्श अमावस्या के दिन विभिन्न स्थानों के संत श्री आशारामजी आश्रमों में सामूहिक श्राद्ध का आयोजन होता है । आप भी इसका लाभ ले सकते हैं । इस हेतु अपने नजदीकी आश्रम में पंजीकरण करा लें । अधिक जानाकारी हेतु पहले ही अपने नजदीकी आश्रम से सम्पर्क कर लें ।
अगर खर्च की परवाह न हो तो अपने घर में भी श्राद्ध कर सकते हैं ।
अमावस्या को श्राद्ध की महिमा
‘वराह पुराण’ के अनुसार एक बार पितरों ने ब्रह्मा जी के चरणों में निवेदन कियाः “भगवन् ! हमें जीविका देने की कृपा कीजिये, जिससे हम सुख प्राप्त कर सकें ।”
प्रसन्न होते हुए भगवान ब्रह्मा जी ने उन्हें वरदान देते हुए कहाः “अमावस्या की तिथि को मनुष्य जल, तिल और कुश से तुम्हारा तर्पण करेंगे । इससे तुम परम तृप्त हो जाओगे । पितरों के प्रति श्रद्धा रखने वाला जो पुरुष तुम्हारी उपासना करेगा, उस पर अत्यंत संतुष्ट होकर यथाशीघ्र वर देना तुम्हारा परम कर्तव्य है ।”
यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि है तथापि आश्विन मास की अमावस्या पितरों के लिए परम फलदायी है । जिन पितरों की शरीर छूटने की तिथि याद नहीं हो, उनके निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इसी अमावस्या को किया जाता है ।
अमावस्या के दिन पितर अपने पुत्रादि के द्वार पर पिंडदान एवं श्राद्धादि की आशा में आते हैं । यदि वहाँ उन्हें पिंडदान या तिलांजलि आदि नहीं मिलती है तो वे श्राप देकर चले जाते हैं । अतः श्राद्ध अवश्य करना चाहिए ।
(श्राद्ध से संबंधित विस्तृत जानकारी हेतु पढ़ें, आश्रम से प्रकाशित पुस्तक श्राद्ध–महिमा) ।