माँ सुमित्रा जी की लक्ष्मण जी को अनुपम सीख
भगवान श्रीरामचन्द्र जी को 14 वर्ष का वनवास मिला । लक्ष्मण जी ने उनसे कहाः “प्रभु ! मैं भी आपके साथ चलूँगा ।” श्रीराम जी ने कहाः “जाओ, माँ से विदा माँग आओ, उनसे आशीर्वाद ले आओ ।”
लक्ष्मण जी ने माँ सुमित्रा को प्रणाम कर कहाः “माँ “मैं प्रभु श्रीराम की सेवा में वन जाना चाहता हूँ ।”
सुमित्रा जीः “बेटा ! तुम मेरे पास क्यों आये ?”
“माँ ! आप मेरी माता हैं इसलिए आपका आशीर्वाद, आपकी आज्ञा लेने आया हूँ ।”
“बेटा ! क्या पिछले जन्म में मैं तेरी माँ थी ? क्या अगले जन्म में मैं तेरी माँ होऊँगी ? कुछ पता नहीं… परंतु बेटा ! जन्मों-जन्मों से जो तेरी माँ हैं, जन्मों-जन्मों से जो तेरे पिता हैं, तू उन प्रभु की सेवा में रहा है तो मेरे से पूछने की क्या आवश्यकत है ? फिर भी मैं तुझे एक सलाह देती हूँ कि तुम पाँच दोषों से बचना ।
रागु रोषु इरिषा मदु मोहू । जनि सपनेहूँ इन्ह के बस होहू ।
सकल प्रकार बिकार बिहाई । मन क्रम बचन करेहु सेवकाई । ।
‘राग, रोष, ईर्ष्या, मद और मोह – इनके वश स्वप्न में भी मत होना । सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से श्री राम सीताराम की सेवा करना ।’ (श्रीरामचरित. अयो. कां. 74.3)
बेटा ! पहला दोष है – राग । तुम प्रभु की सेवा करने जा रहे हो तो कई लोग तुम्हें मिलेंगे, कइयो से परिचय होगा परंतु तुम किसी में राग मत करना, आसक्ति मत करना । अनुराग तो बस एक राम जी से ही करना ।
दूसरा दोष है – रोष (क्रोध) । कभी तुम्हारे मन का न हो तो रोष नहीं करना । क्रोध से बचना । ऐसी इच्छ नहीं करना जिसकी पूर्ति न होने पर क्रोध उत्पन्न हो ।
तीसरा दोष है – ईर्ष्या । कोई प्रभु की ज्यादा सेवा-भक्ति करे, प्रभु किसी को ज्यादा प्रेम करें तो तुम उससे ईर्ष्या नहीं करना बल्कि उसकी सेवा-भक्ति का आदर करना । कोई श्रीरामजी के ज्यादा निकट हो तो उससे ईर्ष्या नहीं करना अपितु उनके प्रति अपना प्रेम बढ़ाना ।
चौथा दोष है – मद । तुम अभिमान से बचना । सेवा, उन्नति या सदगुणों का अपने में अभिमान मत लाना अपितु इन्हें प्रभु की कृपा समझना ।
पाँचवाँ दोष है मोह । मोह का अर्थ है अज्ञान, उलटी समझ । तुम अज्ञानवश किसी के आकर्षण में मत फँसना । ‘इसके बिना नहीं चलेगा, उसके बिना नहीं चलेगा….’ ऐसा नहीं करना अपितु प्रभु में अपने मन को लगाये रखना । अनुकूलता में फँसना नहीं, प्रतिकूलता से घबराना नहीं, प्रभु का आश्रय लेना और अपने हृदय में उनको बसाये रखना तथा निष्कपटतापूर्वक उनकी सेवा करना ।
बेटा लक्ष्मण ! जहाँ श्रीराम जी का निवास हो वहीं तुम्हारी अयोध्या है । श्रीरामचन्द्रजी तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभी के स्वार्थरहित सखा हैं । तुम अवश्य उनके साथ वन जाओ और सेवा धर्म निभाकर अपना जीवन सफल बनाओ । हे पुत्र ! मैं तुम पर बलिहारी जाती हूँ । मेरे समेत तुम बड़े ही सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे चित्त ने छलरहित होकर श्रीराम जी के चरणों में स्थान प्राप्त किया है ।
पुत्रवती जुबती जग सोई । रघुपति भगतु जासु सुतु होई । ।
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी । राम बिमुख सुत तें हित जानी । ।
‘संसार में वही युवती पुत्रवती है, जिसका पुत्र भगवान का भक्त हो । नहीं तो जो भगवान से विमुख पुत्र से हित जानती है, वह तो बाँझ ही अच्छी । पशु की भाँति उसका पुत्र को जन्म देना व्यर्थ ही है ।’ (श्रीरामचरित. अयो.कां. 74.9)
सम्पूर्ण पुण्यों का सबसे बड़ा फल यही है कि भगवान के चरणों में स्वाभाविक प्रेम हो । बेटा ! तुम वही करना जिससे श्रीरामचन्द्रजी वन में क्लेश न पायें । तुम्हारे कारण श्रीराम जी और सीता जी सदैव सुख पायें ।”
माँ सुमित्रा ने इस प्रकार लक्ष्मण जी को अनुपम शिक्षा देकर वन जाने की आज्ञा दी और वह आशीर्वाद दिया कि “श्री सीताजी और श्री रघुवीर जी के चरणों में तुम्हारा निर्मल (निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित्र नया हो, बढ़ता रहे ।”
माता सुमित्रा की भगवत्प्रीति और उनका सदज्ञान से ओतप्रोत उपदेश अदभुत है ! धन्य हैं ऐसी माँ, जो अपनी प्यारी संतान को अत्यंत हितकारी सीख देकर प्रभुभक्ति का उपदेश देती हैं और प्रभुसेवा में भेजती है । हे प्रभो ! हम पर ऐसी कृपा कीजिये कि हमारे हृदय में भी आपके प्रति ऐसी भक्ति आ जाय, हमारी मति में ऐसा सद्ज्ञान दृढ़ हो जाय ।
यन्मातापितरौ वृत्तं तनये कुरुतः सदा ।
न सुप्रतिकरं तत्त् मात्रा पित्रा च यत्कृतम् । ।
‘माता और पिता पुत्र के प्रति जो सर्वदा स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हैं, उपकार करते हैं, उसका प्रत्युपकार सहज ही नहीं चुकाया जा सकता ।’ (श्रीमद् वाल्मीकि रामायण 2.111.9)