दोष-दर्शन नहीं देव-दर्शन
एक माई ने अपने बेटे की निन्दा की एवं बहन ने अपने भाई की निन्दा की उसकी धर्मपत्नी के सामने, जो अभी-अभी शादी करके आयी थी । बहन बोलीः “मेरे भाई का नाम तो तेजबहादुर है । बड़ा तेज है, बात-बात में अड़ जाता है, माँ से पूछो…..”
माँ ने कहाः “इसको पता चलेगा, अभी तो शादी हुए दूसरा दिन हुआ है । अभी तेरे से पंगा होगा, तेरी खबर लेगा बहुरानी ! मेरा बेटा है, मेरा जाया हुआ है, मैं जानती हूँ । अभी तो 2-3 दिन मिठाइयों और गहनों का मजा ले ले, फिर देख कैसा है तेजबहादुर ! तेज है !”
बहुरानी थोड़ी गम्भीर दिखी ।
दोनों ने बोलाः “तू कुछ बोलती नहीं ! इतनी देर से हम तेरे पति की निन्दा कर रहे हैं ।”
बहू तो सत्संगी थी, वह बोलीः “मैं क्या बोलूँ ? आप तो उनकी माता जी हो, मैं आपको नहीं बोल सकती और आप उनकी बहन हो…”
“तो क्यों नहीं पूछती है कि क्या वे सचमुच में ऐसे हैं ? तेज स्वभाव वाले हैं ?”
“माता जी ! माफ करना । आप तो अभी वृद्ध हो, भगवान के धाम जाओगी, और ननद जी ! आप शादी में आयी हो, अपनी ससुराल जाओगी । मेरे को तो इनके साथ जिन्दगी गुजारनी है । मैं इनमें दोष देखकर अपना जीवन जहरी क्यों बनाऊँ ? कैसे भी हैं, ये तो मेरे भर्ता हैं, पतिदेव हैं । देखा जायेगा…. हरि ॐ…. हरि ॐ… निंदा सुनकर, मान के मैं काहे को सिकुड़ूँ, काहे को परेशान हो जाऊँ !”
कैसी ऊँची समझ रही सत्संगी बहुरानी की ! सत्संग जीवन जीने की कला सिखा देता है । दुःख की दलदल में भी समता और ज्ञान के कमल खिला देता है ।
प्रेम और विश्वास कैसे बढ़े ?
प्रेम का बाप है विश्वास और विश्वास का बाप है सच्चाई । पति-पत्नी को एक दूसरे से सच्चाई से पेश आना चाहिए । पत्नी एक बार झूठ बोलेगी, दो बार, पाँच बार, दस बार तो आखिर पति भी तो रोटी खाता है, उसे पता चल जायेगा । पति भी दस बार झूठ बोलेगा तो आखिर पत्नी भी तो रोटी खाती है, पति की भी पोल खुल जायेगी । इसलिए एक-दूसरे को झाँसा देकर पटा के नहीं जीना चाहिए । सच्चाई से बोल दो कि ‘देखो, तुमको सुनकर अच्छा तो नहीं लगेगा लेकिन मेरे से ऐसा हो गया… मैं सत्य बोलता हूँ ।’ घुमा फिराकर आप जितना दूसरों के सामने अच्छा दिखने का दिखावा करोगे, उतनी ही आपकी उस ‘अच्छाई’ की पोल खुल जायेगी । लेकिन सच्चाई से जितने तुम अच्छे दिखोगे, उतना ही तुम्हारे प्रति दूसरों में विश्वास बढ़ेगा ।
मैं आपको सच बताता हूँ कि और लोग तो चन्द्रमा को अर्घ्य देते हैं लेकिन मेरे बेटे की माँ व्रत खोलती है तो मुझे अर्घ्य देकर फिर खाना खाती है, विश्वास की बात है ।
बेटा पिता पर विश्वास करे कि मेरे पिता जी जो करते हैं, मेरी भलाई के लिए करते हैं ।’ आप गृहस्थ जीवन जियो तो बेटे का सद्भाव सम्पादन करो । बेटा बाप के प्रति सद्भाव रखे, पति पत्नी के प्रति रखे । फिर चाहे रूखी रोटी हो चाहे चुपड़ी हो, चाहे खूब यश हो चाहे अपयश की आँधी चले, कोई फर्क नहीं पड़ता । सङ्गच्छध्वं स वदध्वं…. कंधे-से-कंधा मिलाकर सजातीय विचार रख के जीना चाहिए । गृहस्थ जीवन का यही सार है ।
एक दूसरे के प्रति शक विदेश में बहुत है । पत्नी का बैंक खाता अलग, पति का खाता अलग, पति पत्नी से छुपाये, पत्नी पति से छुपाये, उसके बॉय फ्रेंड अलग, उसकी गर्ल फ्रेंड अलग…. बड़ा जहरी जीवन है । लेकिन यह गंदगी हमारे भारत में न बढ़े इसलिए मैं इस उम्र में भी खूब दौड़ धूप कर रहा हूँ । मेरा उद्देश्य यही है कि भारतीय संस्कृति की गरिमा का फायदा भारतवासियों को तो मिले, साथ ही विश्व के लोगों को भी मिले ।