ससुराल की रीति
एक लड़की विवाह करके ससुराल आयी । ससुराल में उसकी दादी सास भी थी । लड़की ने देखा कि दादी सास का बड़ा अपमान-तिरस्कार हो रहा है । सास उनको ठोकरें मारती है, अपशब्द सुनाती रहती है, बहुत दुःख देती है । यह देखकर उस लड़की को बुरा लगा और दया भी आयी । उसने विचार किया कि ‘अगर मैं अपनी सास से कहूँ कि आप अपनी सास का तिरस्कार मत किया करो तो वे कहेंगी कि कल की छोकरी आकर मेरे को उपदेश देती है गुरु बनती है ।’ अतः उसने अपनी सास से कुछ नहीं कहा । उसने एक उपाय सोचा ।
वह रोज अपना कामकाज निपटाकर दादी सास के पास जाकर बैठ जाती और उनके पैर दबाती । ज़ब वह वहाँ ज्यादा बैठने लगी तो सास को यह सुहाया नहीं । एक दिन सास ने उससे पूछा : “बहू ! वहाँ क्यों जा बैठती है ?”
लड़की बोली : “मेरे माता-पिता ने कहा था कि ‘जवान लड़कों के साथ तो कभी बैठना ही नहीं, जवान लड़कियों के साथ भी कभी मत बैठना; जो घर में बड़े-बूढ़े हों, उनके पास बैठना, उनसे शिक्षा लेना ।’ घर में सबसे बूढी दादी माँ ही हैं इसलिए मैं उसके पास ही बैठती हूँ ।
माता-पिता ने यह भी कहा था कि ‘वहाँ हमारे घर के रीति-रिवाज़ नहीं चलेंगे, वहाँ तो तेरी ससुराल के रिवाज़ चलेंगे । बड़े-बूढ़ों से वहाँ के रीति-रिवाज़ सीखकर वैसा ही व्यवहार करना ।’ माँजी ! मुझे यहाँ के रिवाज़ सिखने हैं । दादी माँ सबसे बुजुर्ग हैं इसलिए मैं उनसे पूछती हूँ कि मेरी सासुजी आपकी सेवा कैसे करती हैं ताकि मैं भी वैसे ही करुँ ।”
सास ने पूछा : “बुढ़िया क्या कहती है ?”
“दादीजी कहती हैं कि यह मुझे ठोकर नहीं मारे, गाली नहीं दे, बस इतना ही करे तो अपनी सेवा मान लूँ ।”
सास बोली : “क्या ! तू भी ऐसा ही करेगी ?”
“मैं ऐसा नहीं कर सकती माँ जी ! लेकिन क्या यहाँ के रिवाज़ ऐसे ही हैं ?”
सास चुप हो गयी और भीतर से डरने लगी कि मैं अपनी सास के साथ जो बर्ताव करूँगी, वही बर्ताव मेरे साथ होने लगेगा ।
एक जगह कोने में ठीकरे इकट्ठे पड़े थे ।
सास ने पूछा : “बहू ! ये ठीकरे क्यों इकट्ठे किये हैं ?”
लड़की ने कहा : “आप दादीजी को रोज ठीकरे में भोजन दिया करती हैं । तो यहाँ के रिवाज़ के अनुसार मैंने पहले से ही जमा करके रखे हैं । ठीक किया न मैंने ?”
” अरे ! क्या ठीक किया ? यह रिवाज़ थोड़े ही है !”
“तो फिर आप दादी माँ को ठीकरे में भोजन क्यों देती हैं ?”
“थाली कौन माँजे ?”
“माँजी ! थाली तो मैं माँज दूँगी ।”
“ठीक है तो तू थाली में भोजन दे दिया कर, ठीकरे उठाकर बाहर फ़ेंक दे ।”
अब बूढी माँजी को थाली में भोजन मिलने लगा । सबको भोजन देने के बाद जो बाकी बचे वह या फिर खिड़की की खुरचन, कंकड़वाली दाल बूढी माँजी को दी जाती थी । लड़की उसको हाथ में लेकर देखने लगी । सास ने पूछा : “बहु ! क्या देखती है ?”
“माँजी ! मैं देखती हूँ कि यहाँ बड़ों को कैसा भोजन दिया जाता है ।”
“ऐसा भोजन देने की रीत थोड़े ही है !”
“तो फिर आप ऐसा भोजन क्यों देती है ?”
“पहले भोजन कौन दे ?”
“आप आज्ञा दें तो मैं दे दूँगी ।”
“ठीक है तो तू पहले भोजन दे दिया कर ।”
अब बूढी माँजी को बढ़िया भोजन मिलने लगा । रसोई बनते ही बहू ताजी खिचड़ी, ताज़ा फुलका, दाल-साग ले जाकर बूढी माँजी को दे देती । दादी सास तो मन-ही-मन बहू को आशीर्वाद देने लगीं ।
वह बूढ़ी दादी सास दिन भर एक खटिया पर पड़ी रहती थी । खटिया टूट गयी थी उसकी मुँज नीचे लटकती रहती थी । बहु उस खटिया को देख रही थी । सास बोली: “बहु क्या देखती हो ?”
“देखती हूँ कि बड़ों को कैसी खाट दी जाय ?”
“ऐसी खाट थोड़े ही दी जाती है ! यह तो टूट जाने से ऐसी हो गयी ।”
“तो आप दूसरी क्यों नहीं बिछा देतीं ?”
“तू बिछा दे दूसरी ।”
अब माँजी के लिए निवार की खाट लाकर बिछा दी गयी । दादी माँ के कपड़े छलनी हो गये थे । एक दिन कपड़े धोते समय वह लड़की दादी माँ के कपड़े घूरकर देखने लगी । सास ने पूछा : “क्या देखती हो ?”
देखती हूँ कि यहाँ बूढों को कपड़ा कैसा दिया जाता है ।”
“फिर वही बात, ऐसा कपड़ा थोड़े दिया जाता है, यह तो पुराना होने पर ऐसा हो जाता है ।”
“तो फिर क्या यही कपड़ा रहने दें ?”
“तू बदल दे ।”
अब बहु ने बूढी माँजी के कपड़े, चादर, बिछौना आदि सब बदल दिया । उसकी चतुराई से बूढी माँजी के जीवन में भी खुशहाली छा गयी । अगर वह लड़की सास को कोरा उपदेश देती तो क्या वह उसकी बात मान लेती ? नहीं, बातों का असर नहीं पड़ता, आचरण का असर पड़ता है । इसलिए बहुओं को चाहिए कि वे अपनी ससुराल में ऐसी बुद्धिमानी से सेवा करें और घर में सबको राजी रखें । इससे घर में सुख-शांति बनी रहेगी । आपसी मनमुटाव से घर में सुख-शांति नहीं रहती । सुख-शांति तो परस्पर भावयन्तु….. संगच्छध्वं संवदध्वं….. एक-दूसरे के साथ मिलकर चलो, मिलकर रहो और एक-दूसरे के लिए पूर्णरूप से सहायक बनो- इस सिद्धांत में है । इसीमें घर-परिवार, समाज और देश का मंगल है, कल्याण है । भारतीय संस्कृति के जो इतने दिव्य, उच्च आदर्श है, प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह उनका पालन करे और उन्हें अपने जीवन में लाये, ताकि प्रत्येक व्यक्ती अपनी-अपनी व्यवस्था से ऊँचा उठे और समाज और देश के उद्धार में, सुख-शांति में सहायक बने । अपना छुपा हुआ आत्मरस जागृत करे । अपना आत्मस्वरूप, चित्स्वरूप, आनंदस्वरूप आत्मस्वभाव जागृत करने में सफल बने । राग-द्वेष, ईर्ष्या, निंदा, घृणा इस चाण्डाल-चौकड़ी से हम भी बचें, हमारे सम्पर्कवालों को भी युक्ति से बचायें ।