अपरोक्ष आनंद की अनुभूति : आत्मसाक्षात्कार
जो सभी के दिलों को सत्ता, स्फूर्ति और चेतना देता है, सब तपों और यज्ञों के फल का दाता है, ईश्वरों का भी ईश्वर है उस आत्म-परमात्म देव के साथ एकाकार होने की अनुभूति का नाम है – साक्षात्कार । यह शुद्ध आनंद व शुद्ध ज्ञान की अनुभूति है । इस अनुभूति के होने के बाद अनुभूति करनेवाला नही बचता अर्थात उसमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व भाव नही रहता, वह स्वयं प्रकट ब्रह्मरूप हो जाता है ।
जैसे लोहे की पुतली का पारस से स्पर्श हुआ तो वह लोहे की पुतली नही रही सोने की हो गयी, ऐसे ही आपकी मति जब परब्रह्म परमात्मा में गोता मरती है तो ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाति है । ऋतंभरा प्रज्ञा यानि सत्य में टिकी हुई बुद्धि । ऐसा प्रज्ञावान पुरुष जो बोलेगा वह सत्संग हो जायेगा ।
राजा परीक्षित ने सात दिन में साक्षात्कार करके दिखा दिया….किसी ने चालीस दिन में करके दिखा दिया…मैं कहता हूँ कि चालीस साल में भी परमात्मा का साक्षात्कार हो जाय तो सौदा सस्ता है । वैसे भी करोड़ों जन्म ऐसे ही बीत गये साक्षात्कार के बिना ।
तुम इंद्र बन जाओगे तो भी वहाँ से पतन होगा, प्रधानमंत्री बन जाओगे तो भी कुर्सी से हटना पड़ेगा । एक बार साक्षात्कार हो जाय तो मृत्यु के समय भी आपको यह नही लगेगा : ‘मैं मर रहा हूँ ।’ बीमारी के समय भी नही लगेगा : ‘मैं बीमार हूँ ।’ लोग आपकी जय-जयकार करेंगे तब भी आपको नही लगेगा कि ‘मेरा नाम हो रहा है ।’ आप फूलेंगे नही । निंदक आपकी निंदा करेंगे तब भी आपको नही लगेगा की ‘मेरी निंदा हो रही है ।’ आप सिकुड़ोगे नही, बस हर हाल में मस्त ! देवता आपका दीदार करके अपना भाग्य बना लेंगे पर आपको अभिमान नही आएगा, साक्षत्कार ऐसी उच्च अनुभूति है ।
साक्षात्कार को आप क्या समझते हो ? यह तो ऐसा है कि सब्जी-मंडी में कोई हीरे-जवाहरात लेकर बैठा हो । लोग सब्जी लेकर और हीरे-जवाहरात देख के चलते जायेंगे । फिर वहाँ हीरे-जवाहरात खोलकर कोई कितनी देर बैठेगा – ऐसी बात है साक्षात्कार की । संसार चाहनेवालों के बीच साक्षात्कार कि महिमा कौन जानेगा ? कौन सराहेगा ? कौन मनायेगा साक्षात्कार दिवस और कैसे मनायेगा ? इसीलिए जन्मदिन मनाने की कोई रीति प्रचलित नही है । फिर भी सतशिष्य अपने सदगुरु का प्रसाद पाने के लिए उनके साक्षात्कार दिवस पर अपने ढंग से कुछ-न-कुछ कर लेते हैं ।
साक्षात्कार पूरी धरती पर किसी-किसी को होता है । साक्षात्कार धन से, सत्ता से, रिद्धि-सिद्धियों से भी बड़ा है । साक्षात्कारी महापुरुष कई धनवान, कई सत्तावान पैदा कर सकते हैं । कई ऐसे महापुरुष मैंने देखे जो हवा पीकर जीते हैं, उनके पास अदृश्य होने की भी शक्ति है । ऐसे भी संत मेरे मित्र हैं जिनके आगे गायत्री देवी प्रकट हुई, हनुमानजी प्रकट हुए, सूक्ष्म शरीर से हनुमानजी उनको घुमाकर भी ले आये परन्तु इन सभी अनुभवों के बाद भी जब तक इस जीवात्मा को परमात्मा का साक्षात्कार नही होता तब तक वह चाहे स्वर्ग में चला जाये, वैकुंठ में चला जाय, पाताल में चला जाय, सारे ब्रह्मांड में भटक ले पर ‘निज सुख बिनु मन होई की थीरा ।’ आत्मसाक्षात्कार के बिना पूर्ण तृप्ति, शाश्वत संतोष नही होगा ।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के मित्र थे और सारथि बनकर उसका रथ चला रहे थे, तब भी अर्जुन को साक्षात्कार करना बाकि था । उस आत्मसुख की प्राप्ति अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण के सत्संग से हुई, हनुमानजी को रामजी के सत्संग से हुई । राजा जनक को अष्टावक्र मुनि की कृपा से वह पद मिला और आसुमल को पूज्य लीलाशाह बापूजी की कृपा से आज (आश्विन शुक्ल द्वित्य, आसौज सूद दूज) के दिन वह आत्मसुख मिला था ।
पूर्ण गुरु किरपा मिली, पूर्ण गुरु का ज्ञान । आसुमल से हो गये, साईं आसाराम ।।
इन्द्रपद बहुत ऊँचा है लेकिन आत्मसाक्षात्कार के आगे वह भी मायने नही रखता । साक्षात्कार के आनंद से त्रिलोकी को पाने का अनद भी बहुत तुच्छ है । इसीलिए ‘अष्टावक्र गीता’ में कहा गया है :
यत्पदं प्रेप्सवो दिना: शक्राधा: सर्वदेवता: । अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति ।।
‘जिस पद को पाये बिना इंद्र आदि सब देवता भी अपने को कंगाल मानते हैं, उस पद में स्थित हुआ योगी, ज्ञानी हर्ष को प्राप्त नही होता, आश्चर्य है ।’ (अष्टावक्र गीता : ४.२)
आत्मसाक्षात्कारी महापुरुष को इस बात को अहंकार नही होता कि ‘मैं ब्रह्मज्ञानी हूँ…..मैं साक्षात्कारी हूँ…..इस दुनिया में दूसरा कोई मेरी बराबरी का नही है…….मैंने सर्वोपरी पद पाया है…..’
उस परमात्म-सुख को, परमात्म-पद को पाये बिना, निर्वासनिक नारायण में विश्रांति पाये बिना हृदय की तपन, राग-द्वेष, भय-शोक-मोह व चिंताएँ नही मिटतीं । अगर इनसे छुटकारा पाना है तो यत्नपूर्वक आत्मसाक्षात्कारी महापुरुषों का संग करें, मौन रखें, सत्शास्त्रों का पठन-मनन एवं जप-ध्यान करें । निर्वासनिक नारायण तत्व में विश्रांति पाने में ये सब सहायक साधन हैं ।
ऐसा नही है की परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया तो कोई आपकी निंदा नही करेगा, आपके सब दिन सुखद हो जायेंगे । नहीं….परमात्म-साक्षात्कार हो जाय फिर भी दुःख तो आयेंगे ही । भगवान राम को भी चौदह वर्ष का वनवास मिला था । महात्मा बुद्ध हो या महावीर स्वामी, संत कबीरजी हों या नानकदेव, श्री रमण महर्षि हों या श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी रामतीर्थ हों या पूज्य लीलाशाहजी बापू विघ्न-बाधाएँ तो सभी देहधारियों के जीवन में आती ही हैं लेकिन इनका प्रभाव जहाँ पहुँच नही सकता उस आत्मसुख में वे महापुरुष सराबोर होते हैं ।
जैसे जंगल में आग लगने पर सयाने पशु सरोवर में खड़े हो जाते हैं तो आग उन्हें जला नही सकती, ऐसे ही जो महापुरुष आत्मसरोवर में आने की कला जान लेते हैं वे संसार की तपन के समय अपने आत्मसुख का विचार कर तपन के प्रभाव से परे हो जाते हैं ।