संयमनिष्ठ सुयशा
अमदावाद की घटित घटना हैः
विक्रम संवत् 17 वीं शताब्दी में कर्णावती (अमदावाद) में युवा राजा पुष्पसेन का राज्य था । जब उसकी सवारी निकलती तो बाजारों में लोग कतारबद्ध खड़े रहकर उसके दर्शन करते । जहाँ किसी सुन्दर युवती पर उसकी नजर पड़ती तब मंत्री को इशारा मिल जाता । रात्रि को वह सुन्दरी महल में पहुँचायी जाती । फिर भले किसी की कन्या हो अथवा दुल्हन !
एक गरीब कन्या, जिसके पिता का स्वर्गवास हो गया था । उसकी माँ चक्की चलाकर अपना और बेटी का पेट पालती थी । वह स्वयं भी कथा सुनती और अपनी पुत्री को भी सुनाती । हक और परिश्रम की कमाई, एकादशी का व्रत और भगवन्नाम-जप, इन सबके कारण 16 वर्षीया कन्या का शरीर बड़ा सुगठित था और रूप लावण्य का तो मानों, अंबार थी ! उसका नाम था सुयशा ।
सबके साथ सुयशा भी पुष्पसेन को देखने गयी । सुयशा का ओज तेज और रूप लावण्य देखकर पुष्पसेन ने अपने मंत्री को इशारा किया । मंत्री ने कहाः “जो आज्ञा ।”
मंत्री ने जाँच करवायी । पता चला कि उस कन्या का पिता है नहीं, माँ गरीब विधवा है । उसने सोचाः ‘यह काम तो सरलता से हो जायेगा ।’
मंत्री ने राजा से कहाः “राजन् ! लड़की को अकेले क्या लाना? उसकी माँ से साथ ले आयें । महल के पास एक कमरे में रहेंगी, झाड़ू-बुहारी करेंगी, आटा पीसेंगी । उनको केवल खाना देना है ।”
मंत्री ने युक्ति से सुयशा की माँ को महल में नौकरी दिलवा दी । इसके बाद उस लड़की को महल में लाने की युक्तियाँ खोजी जाने लगीं । उसको बेशर्मी के वस्त्र दिये । जो वस्त्र कुकर्म करने के लिए वेश्याओं को पहनकर तैयार रहना होता है, म्रंत्री ने ऐसे वस्त्र भेजे और कहलवायाः “राजा साहब ने कहा हैः सुयशा ! ये वस्त्र पहन कर आओ । सुना है कि तुम भजन अच्छा गाती हो अतः आकर हमारा मनोरंजन करो ।”
यह सुनकर सुयशा को धक्का लगा ! जो बूढ़ी दासी थी और ऐसे कुकर्मों में साथ देती थी, उसने सुयशा को समझाया कि “ये तो राजाधिराज हैं, पुष्पसेन महाराज हैं । महाराज के महल में जाना तेरे लिए सौभाग्य की बात है ।” इस तरह उसने और भी बातें कहकर सुयशा को पटाया ।
सुयशा कैसे कहती कि ‘मैं भजन गाना नहीं जानती हूँ । मैं नहीं आऊँगी…’ राज्य में रहती है और महल के अंदर माँ काम करती है । माँ ने भी कहाः “बेटी ! जा । यह वृद्धा कहती है तो जा ।”
सुयशा ने कहाः “ठीक है । लेकिन कैसे भी करके ये बेशर्मी के वस्त्र पहनकर तो नहीं जाऊँगी ।
सुयशा सीधे-सादे वस्त्र पहनकर राजमहल में गयी । उसे देखकर पुष्पसेन को धक्का लगा कि ‘इसने मेरे भेजे हुए कपड़े नहीं पहने?’ दासी ने कहाः “दूसरी बार समझा लूँगी, इस बार नहीं मानी ।”
सुयशा का सुयश बाद में फैलेगा, अभी तो अधर्म का पहाड़ गिर रहा था…. धर्म की नन्हीं-सी मोमबत्ती पर अधर्म का पहाड़…! एक तरफ राजसत्ता की आँधी है तो दूसरी तरफ धर्मसत्ता की लौ ! जैसे रावण की राजसत्ता और विभीषण की धर्मसत्ता, दुर्योधन की राजसत्ता और विदुर की धर्मसत्ता ! हिरण्यकशिपु की राजसत्ता और प्रह्लाद की धर्मसत्ता ! धर्मसत्ता और राजसत्ता टकरायी । राजसत्ता चकनाचूर हो गयी और धर्मसत्ता की जय-जयकार हुई और हो रही है ! विक्रम राणा और मीरा…. मीरा की धर्म में दृढ़ता थी । राणा राजसत्ता के बल पर मीरा पर हावी होना चाहता था । दोनों टकराये और विक्रम राणा मीरा के चरणों में गिरा !
धर्मसत्ता दिखती तो सीधी सादी है लेकिन उसकी नींव पाताल में होती है और सनातन सत्य से जुड़ी होती है जबकि राजसत्ता दिखने में बड़ी आडम्बरवाली होती है लेकिन भीतर ढोल की पोल की तरह होती है ।
राजदरबार के सेवक ने कहाः “राजाधिराज महाराज पुष्पसेन की जय हो ! हो जाय गाना शुरु ।”
पुष्पसेनः “आज तो हम केवल सुयशा का गाना सुनेंगे ।”
दासी ने कहाः “सुयशा ! गाओ, राजा स्वयं कह रहे हैं ।”
राजा के साथी भी सुयशा का सौन्दर्य नेत्रों के द्वारा पीने लगे और राजा के हृदय में काम-विकार पनपने लगा । सुयशा राजा के दिये वस्त्र पहनकर नहीं आयी, फिर भी उसके शरीर का गठन और ओज-तेज बड़ा सुन्दर लग रहा था । राजा भी सुयशा को चेहरे को निहारे जा रहा था ।
कन्या सुयशा ने मन-ही-मन प्रभु से प्रार्थना कीः ‘प्रभु ! अब तुम्हीं रक्षा करना ।’
आपको भी जब धर्म और अधर्म के बीच निर्णय करना पड़े तो धर्म के अधिष्ठानस्वरूप परमात्मा की शरण लेना । वे आपका मंगल ही करते हैं । उन्हींसे पूछना कि ‘अब मैं क्या करूँ? अधर्म के आगे झुकना मत । परमात्मा की शरण जाना ।
दासी ने सुयशा से कहाः “गाओ, संकोच न करो, देर न करो । राजा नाराज होंगे, गाओ ।”
परमात्मा का स्मरण करके सुयशा ने एक राग छेड़ाः
कब सुमिरोगे राम? साधो ! कब सुमिरोगे राम?
अब तुम कब सुमिरोगे राम?
बालपन सब खेल गँवायो, यौवन में काम ।
साधो ! कब सुमिरोगे राम? कब सुमिरोगे राम?
पुष्पसेन के मुँह पर मानों, थप्पड़ लगा ।
सुयशा ने आगे गायाः
हाथ पाँव जब कंपन लागे, निकल जायेंगे प्राण ।
कब सुमिरोगे राम? साधो ! कब सुमिरोगे राम?
झूठी काया झूठी माया, आखिर मौत निशान ।
कहत कबीर सुनो भई साधो, जीव दो दिन का मेहमान ।
कब सुमिरोगे राम? साधो ! कब सुमिरोगे राम?
भावयुक्त भजन से सुयशा का हृदय तो राम रस से सराबोर हो गया लेकिन पुष्पसेन के रंग में भंग पड़ गया । वह हाथ मसलता ही रह गया । बोलाः ‘ठीक है, फिर देखता हूँ ।’
सुयशा ने विदा ली । पुष्पसेन ने मंत्रियों से सलाह ली और उपाय खोज लिया कि ‘अब होली आ रही है उस होलिकोत्सव में इसको बुलाकर इसके सौन्दर्य का पान करेंगे ।’
राजा ने होली पर सुयशा को फिर से वस्त्र भिजवाये और दासी से कहाः “कैसे भी करके सुयशा को यही वस्त्र पहनाकर लाना है ।”
दासी ने बीसों ऊँगिलयों का जोर लगाया । माँ ने भी कहाः “बेटी ! भगवान तेरी रक्षा करेंगे । मुझे विश्वास है कि तू नीच कर्म करने वाली लड़कियों जैसा न करेगी । तू भगवान की, गुरु की स्मृति रखना । भगवान तेरा कल्याण करें ।”
महल में जाते समय इस बार सुयशा ने कपड़े तो पहन लिये लेकिन लाज ढाँकने के लिए ऊपर एक मोटी शाल ओढ़ ली । उसे देखकर पुष्पसेन को धक्का तो लगा, लेकिन यह भी हुआ कि ‘चलो, कपड़े तो मेरे पहनकर आयी है ।’ राजा ऐसी-वैसी युवतियों से होली खेलते-खेलते सुयशा की ओर आया और उसकी शाल खींची । ‘हे राम’ करके सुयशा आवाज करती हुई भागी । भागते-भागते माँ की गोद में आ गिरी । “माँ, माँ ! मेरी इज्जत खतरे में है । जो प्रजा का पालक है वही मेरे धर्म को नष्ट करना चाहता है ।”
माँ: “बेटी ! आग लगे इस नौकरी को ।” माँ और बेटी शोक मना रहे हैं । इधर राजा बौखला गया कि ‘मेरा अपमान….! मैं देखता हूँ अब वह कैसे जीवित रहती है?’ उसने अपने एक खूँखार आदमी कालू मियाँ को बुलवाया और कहाः “कालू ! तुझे स्वर्ग की उस परी सुयशा का खात्मा करना है । आज तक तुझे जिस-जिस व्यक्ति को खत्म करने को कहा है, तू करके आया है । यह तो तेरे आगे मच्छर है मच्छर है ! कालू ! तू मेरा खास आदमी है । मैं तेरा मुँह मोतियों से भर दूँगा । कैसे भी करके सुयशा को उसके राम के पास पहुँचा दे ।”
कालू ने सोचाः ‘उसे कहाँ पर मार देना ठीक होगा?…. रोज प्रभात के अँधेरे में साबरमती नदी में स्नान करने जाती है…. बस, नदी में गला दबोचा और काम खत्म…’जय साबरमती’ कर देंगे ।’
कालू के लिए तो बायें हाथ का खेल था लेकिन सुयशा का इष्ट भी मजबूत था । जब व्यक्ति का इष्ट मजबूत होता है तो उसका अनिष्ट नहीं हो सकता ।
मैं सबको सलाह देता हूँ कि आप जप और व्रत करके अपना इष्ट इतना मजबूत करो कि बड़ी-से-बड़ी राजसत्ता भी आपका अनिष्ट न कर सके । अनिष्ट करने वाले के छक्के छूट जायें और वे भी आपके इष्ट के चरणों में आ जायें… ऐसी शक्ति आपके पास है ।
कालू सोचता हैः ‘प्रभात के अँधेरे में साबरमती के किनारे… जरा सा गला दबोचना है, बस । छुरा मारने की जरूरत ही नहीं है । अगर चिल्लायी और जरूरत पड़ी तो गले में जरा-सा छुरा भौंककर ‘जय साबरमती’ करके रवाना कर दूँगा । जब राजा अपना है तो पुलिस की ऐसी-तैसी… पुलिस क्या कर सकती है? पुलिस के अधिकारी तो जानते हैं कि राजा का आदमी है ।’
कालू ने उसके आने-जाने के समय की जानकारी कर ली । वह एक पेड़ की ओट में छुपकर खड़ा हो गया । ज्यों ही सुयशा आयी और कालू ने झपटना चाहा त्यों ही उसको एक की जगह पर दो सुयशा दिखाई दीं । ‘कौन सी सच्ची? ये क्या? दो कैसे? तीन दिन से सारा सर्वेक्षण किया, आज दो एक साथ ! खैर, देखता हूँ, क्या बात है? अभी तो दोनों को नहाने दो….’ नहाकर वापस जाते समय उसे एक ही दिखी तब कालू हाथ मसलता है कि ‘वह मेरा भ्रम था ।’
वह ऐसा सोचकर जहाँ शिवलिंग था उसी के पास वाले पेड़ पर चढ़ गया कि ‘वह यहाँ आयेगी अपने बाप को पानी चढ़ाने… तब ‘या अल्लाह’ करके उस पर कूदूँगा और उसका काम तमाम कर दूँगा ।’
उस पेड़ से लगा हुआ बिल्वपत्र का भी एक पेड़ था । सुयशा साबरमती में नहाकर शिवलिंग पर पानी चढ़ाने को आयी । हलचल से दो-चार बिल्वपत्र गिर पड़े । सुयशा बोलीः “हे प्रभु ! हे महादेव ! सुबह-सुबह ये जिस बिल्वपत्र जिस निमित्त से गिरे हैं, आज के स्नान और दर्शन का फल मैं उसके कल्याण के निमित्त अर्पण करती हूँ । मुझे आपका सुमिरन करके संसार की चीज नहीं पानी, मुझे तो केवल आपकी भक्ति ही पानी है ।”
सुयशा का संकल्प और उस क्रूर-कातिल के हृदय को बदलने की भगवान की अनोखी लीला !
कालू छलाँग मारकर उतरा तो सही लेकिन गला दबोचने के लिए नहीं । कालू ने कहाः “लड़की ! पुष्पसेन ने तेरी हत्या करने का काम मुझे सौंपा था । मैं खुदा की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं तेरी हत्या के लिए छुरा तैयार करके आया था लेकिन तू… अनदेखे घातक का भी कल्याण करना चाहती है ! ऐसी हिन्दू कन्या को मारकर मैं खुदा को क्या मुँह दिखाऊँगा? इसलिए आज से तू मेरी बहन है । तू तेरे भैया की बात मान और यहाँ से भाग जा । इससे तेरी भी रक्षा होगी और मेरी भी । जा, ये भोले बाबा तेरी रक्षा करेंगे । जिन भोले बाबा तेरी रक्षा करेंगे, जा, जल्दी भाग जा….”
सुयशा को कालू मियाँ के द्वारा मानों, उसका इष्ट ही कुछ प्रेरणा दे रहा था । सुयशा भागती-भागती बहुत दूर निकल गयी ।
जब कालू को हुआ कि ‘अब यह नहीं लौटेगी…’ तब वह नाटक करता हुआ राजा के पास पहुँचाः “राजन ! आपका काम हो गया वह तो मच्छर थी… जरा सा गला दबाते ही ‘मे ऽऽऽ’ करती रवाना हो गयी ।”
राजा ने कालू को ढेर सारी अशर्फियाँ दीं । कालू उन्हें लेकर विधवा के पास गया और उसको सारी घटना बताते हुए कहाः “माँ ! मैंने तेरी बेटी को अपनी बहन माना है । मैं क्रूर, कामी, पापी था लेकिन उसने मेरा दिल बदल दिया । अब तू नाटक कर की हाय, मेरी बेटी मर गयी… मर गयी..’ इससे तू भी बचेगी, तेरी बेटी भी बचेगी और मैं भी बचूँगा ।
तेरी बेटी की इज्जत लूटने का षड्यंत्र था, उसमें तेरी बेटी नहीं फँसी तो उसकी हत्या करने का काम मुझे सौंपा था । तेरी बेटी ने महादेव से प्रार्थना की कि ‘जिस निमित्त ये बिल्वपत्र गिरे हैं उसका भी कल्याण हो, मंगल हो ।’ माँ ! मेरा दिल बदल गया है । तेरी बेटी मेरी बहन है । तेरा यह खूँखार बेटा तुझे प्रार्थना करता है कि तू नाटक कर लेः ‘हाय रेऽऽऽ ! मेरी बेटी मर गयी । वह अब मुझे नहीं मिलेगी, नदी में डूब गयी…’ ऐसा करके तू भी यहाँ से भाग जा ।”
सुयशा की माँ भाग निकली । उस कामी राजा ने सोचा कि मेरे राज्य की एक लड़की… मेरी अवज्ञा करे ! अच्छा हुआ मर गयी ! उसकी माँ भी अब ठोकरें खाती रहेगी… अब सुमरती रहे वही राम ! कब सुमिरोगे राम? साधो ! कब सुमिरोगे राम? झूठी काया झूठी माया आखिर मौत निशान ! कब सुमिरोगे राम? साधो ! सब सुमिरोगे राम? हा हा हा हा ऽऽऽ…‘
मजाक-मजाक में गाते-गाते भी यह भजन उसके अचेतन मन में गहरा उतर गया… कब सुमिरोगे राम?
उधर सुयशा को भागते-भागते रास्ते में माँ काली का एक छोटा-सा मंदिर मिला । उसने मंदिर में जाकर प्रणाम किया । वहाँ की पुजारिन गौतमी ने देखा कि क्या रूप है, क्या सौन्दर्य है और कितनी नम्रता !’ उसने पूछाः “बेटी ! कहाँ से आयी हो?”
सुयशा ने देखा कि एक माँ तो छूटी, अब दूसरी माँ बड़े प्यार से पूछ रही है… सुयशा रो पड़ी और बोलीः “मेरा कोई नहीं है । अपने प्राण बचाने के लिए मुझे भागना पड़ा ।” ऐसा कहकर सुयशा ने सब बता दिया ।
गौतमीः “ओ हो ऽऽऽ… मुझे संतान नहीं थी । मेरे भोले बाबा ने, मेरी काली माँ ने मेरे घर 16 वर्ष की पुत्री भेज दी ।” बेटी… बेटी ! कहकर गौतमी ने सुयशा को गले लगा लिया और अपने पति कैलाशनाथ को बताया कि “आज हमें भोलानाथ ने 16 वर्ष की सुन्दरी कन्या दी है । कितनी पवित्र है । कितनी भक्ति भाववाली है ।”
कैलाशनाथः “गौतमी ! पुत्री की तरह इसका लालन-पालन करना, इसकी रक्षा करना । अगर इसकी मर्जी होगी तो इसका विवाह करेंगे नहीं तो यहीं रहकर भजन करे ।”
जो भगवान का भजन करते हैं उनको विघ्न डालने से पाप लगता है ।
सुयशा वहीं रहने लगी । वहाँ एक साधु आता था । साधु भी बड़ा विचित्र था । लोग उसे ‘पागलबाबा’ कहते थे । पागलबाबा ने कन्या को देखा तो बोल पड़ेः हूँऽऽऽ…”
गौतमी घबरायी कि “एक शिकंजे से निकलकर कहीं दूसरे में….? पागलबाबा कहीं उसे फँसा न दे…. हे भगवान ! इसकी रक्षा करना ।” स्त्री का सबसे बड़ा शत्रु है उसका सौन्दर्य एवं श्रृंगार दूसरा है उसकी असावधानी । सुयशा श्रृंगार तो करती नहीं थी, असावधान भी नहीं थी लेकिन सुन्दर थी ।
गौतमी ने अपने पति को बुलाकर कहाः
“देखो, ये बाबा बार-बार अपनी बेटी की तरफ देख रहे हैं ।”
कैलाशनाथ ने भी देखा । बाबा ने लड़की को बुलाकर पूछाः “क्या नाम है?”
“सुयशा ।”
“बहुत सुन्दर हो, बड़ी खूबसूरत हो ।”
पुजारिन और पुजारी घबराये ।
बाबा ने फिर कहाः “बड़ी खूबसूरत है ।”
कैलाशनाथः “महाराज ! क्या है?”
“बड़ी खूबसूरत है ।”
“महाराज आप तो संत आदमी हैं ।”
“तभी तो कहता हूँ कि बड़ी खूबसूरत है, बड़ी होनहार है । मेरी होगी तू?”
पुजारिन-पुजारी और घबराये कि ‘बाबा क्या कह रहे हैं? पागल बाबा कभी कुछ कहते हैं वह सत्य भी हो जाता है । इनसे बचकर रहना चाहिए । क्या पता कहीं….’
कैलाशनाथः “महाराज ! क्या बोल रहे हैं ।”
बाबा ने सुयशा से फिर पूछाः “तू मेरी होगी?”
सुयशाः “बाबा मैं समझी नहीं ।”
“तू मेरी साधिका बनेगी? मेरे रास्ते चलेगी?”
“कौन-सा रास्ता?”
“अभी दिखाता हूँ । माँ के सामने एकटक देख…. माँ ! तेरे रास्ते ले जा रहा हूँ, चलती नहीं है तो तू समझा माँ, माँ !”
लड़की को लगा कि ‘ये सचमुच पागल हैं ।’
‘चल’ करके दृष्टि से ही लड़की पर शक्तिपात कर दिया । सुयशा के शरीर में स्पंदन होने लगा, हास्य आदि अष्टसात्त्विक भाव उभरने लगे ।
पागलबाबा ने कैलाशनाथ और गौतमी से कहाः “यह बड़ी खूबसूरत आत्मा है । इसके बाह्य सौन्दर्य पर राजा मोहित हो गया था । यह प्राण बचाकर आयी है और बच पायी है । तुम्हारी बेटी है तो मेरी भी तो बेटी है । तुम चिन्ता न करो । इसको घर पर अलग कमरे में रहने दो । उस कमरे में और कोई न जाय । इसकी थोड़ी साधना होने दो फिर देखो क्या-क्या होता है? इसकी सुषुप्त शक्तियों को जगने दो । बाहर से पागल दिखता हूँ लेकिन ‘गल’ को पाकर घूमता हूँ, बच्चे ।”
“महाराज आप इतने सामर्थ्य के धनी हैं यह हमें पता नहीं था । निगाहमात्र से आपने संप्रेक्षण शक्ति का संचार कर दिया ।”
अब तो सुयशा का ध्यान लगने लगा । कभी हँसती है, कभी रोती है । कभी दिव्य अनुभव होते हैं । कभी प्रकाश दिखता है, कभी अजपा जप चलता है कभी प्राणायाम से नाड़ी-शोधन होता है । कुछ ही दिनों में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर केन्द्र जाग्रत हो गये ।
मूलाधार केन्द्र जागृत हो तो काम राम में बदलता है, क्रोध क्षमा में बदलता है, भय निर्भयता में बदलता है, घृणा प्रेम में बदलती है । स्वाधिष्ठान केन्द्र जागृत होता है तो कई सिद्धियाँ आती हैं । मणिपुर केन्द्र जाग्रत हो तो अपढ़े, अनसुने शास्त्र को जरा सा देखें तो उस पर व्याख्या करने का सामर्थ्य आ जाता है ।
आपके से ये सभी केन्द्र अभी सुषुप्त हैं । अगर जग जायें तो आपके जीवन में भी यह चमक आ सकती है । हम स्कूली विद्या तो केवल तीसरी कक्षा तक पढ़े हैं लेकिन ये केन्द्र खुलने के बाद देखो, लाखों-करोड़ों लोग सत्संग सुन रहे हैं, खूब लाभान्वित हो रहे हैं । इन केन्द्रों में बड़ा खजाना भरा पड़ा है ।
इस तरह दिन बीते….. सप्ताह बीते.. महीने बीते । सुयशा की साधना बढ़ती गयी…. अब तो वह बोलती है तो लोगों के हृदयों को शांति मिलती है । सुयशा का यश फैला…. यश फैलते-फैलते साबरमती के जिस पार से वह आयी थी, उस पार पहुँचा । लोग उसके पास आते-जाते रहे….. एक दिन कालू मियाँ ने पूछाः “आप लोग इधर से उधर उस पार जाते हो और एक दो दिन के बाद आते हो क्या बात है?”
लोगों ने बतायाः “उस पार माँ भद्रकाली का मंदिर है, शिवजी का मंदिर है । वहाँ पागलबाबा ने किसी लड़की से कहाः ‘तू तो बहुत सुन्दर है, संयमी है ।’ उस पर कृपा कर दी ! अब वह जो बोलती है उसे सुनकर हमें बड़ी शांति मिलती है, बड़ा आनंद मिलता है ।”
“अच्छा, ऐसी लड़की है?”
“उसको लड़की-लड़की मत कहो कालू मियाँ ! लोग उसको माता जी कहते हैं । पुजारिन और पुजारी भी उसको ‘माताजी-माताजी कहते हैं । क्या पता कहाँ से वह स्वर्ग को देवी आयी है?”
“अच्छा तो अपन भी चलते हैं ।”
कालू मियाँ ने आकर देखा तो…. “जिस माताजी को लोग मत्था टेक रहे हैं वह वही सुयशा है, जिसको मारने के लिए मैं गया था और जिसने मेरा हृदय परिवर्तित कर दिया था ।”
जानते हुए भी कालू मियाँ अनजान होकर रहा, उसके हृदय को बड़ी शांति मिली । इधर पुष्पसेन को मानसिक खिन्नता, अशांति और उद्वेग हो गया । भक्त को कोई सताता है तो उसका पुण्य नष्ट हो जाता है, इष्ट कमजोर हो जाता है और देर-सवेर उसका अनिष्ट होना शुरु हो जाता है ।
संत सताये तीनों जायें तेज, बल और वंश ।
पुष्पसेन को मस्तिष्क का बुखार आ गया । उसके दिमाग में सुयशा की वे ही पंक्तियाँ घूमने लगीं-
कब सुमिरोगे राम? साधो ! कब सुमिरोगे राम….
उन पंक्तियों को गाते-गाते वह रो पड़ा । हकीम, वैद्य सबने हाथ धो डाले और कहाः “राजन ! अब हमारे वश की बात नहीं है ।”
कालू मियाँ को हुआः ‘यह चोट जहाँ से लगी है वहीं से ठीक हो सकती है ।’ कालू मिलने गया और पूछाः “राजन् ! क्या बात है?”
“कालू ! कालू ! वह स्वर्ग की परी कितना सुन्दर गाती थी । मैंने उसकी हत्या करवा दी । मैं अब किसको बताऊँ? कालू ! अब मैं ठीक नहीं हो सकता हूँ । कालू ! मेरे से बहुत बड़ी गलती हो गयी !”
“राजन ! अगर आप ठीक हो जायें तो?”
“अब नहीं हो सकता । मैंने उसकी हत्या करवा दी है, कालू उसने कितनी सुन्दर बात कही थीः
झूठी काया झूठी माया आखिर मौत निशान !
कहत कबीर सुनो भई साधो, जीव दो दिन का मेहमान ।
कब सुमिरोगे राम? साधो ! कब सुमिरोगे राम?
और मैंने उसकी हत्या करवा दी । कालू ! मेरा दिल जल रहा है । कर्म करते समय पता नहीं चलता, कालू ! बाद में अन्दर की लानत से जीव तप मरता है । कर्म करते समय यदि यह विचार किया होता तो ऐसा नहीं होता । कालू ! मैंने कितने पाप किये हैं ।”
कालू का हृदय पसीजा की इस ‘राजा को अगर उस देवी की कृपा मिल जाये तो ठीक हो सकता है । वैसे यह राज्य तो अच्छा चलाना जानता है, दबंग है । पापकर्म के कारण इसको जो दोष लगा है वह अगर धुल जाये तो….’
कालू बोलाः “राजन् ! अगर वह लड़की कहीं मिल जाये तो?”
“कैसे मिलेगी?”
“जीवनदान मिले तो मैं बताऊँ । अब वह लड़की, लड़की नहीं रही । पता नहीं, साबरमती माता ने उसको कैसे गोद में ले लिया और वह जोगन बन गयी है । लोग उसके कदमों में अपना सिर झुकाते हैं ।”
“हैं…. क्या बोलता है? जोगन बन गयी है? वह मरी नहीं है?”
“नहीं ।”
“तूने तो कहा था मर गयी?”
“मैंने तो गला दबाया और समझा मर गयी होगी लेकिन आगे निकल गयी, कहीं चली गयी और किसी साधु बाबा की मेहरबानी हो गयी और मेरे को लगता है कि रूपये में 15 आना पक्की बात है कि वही सुयशा है । जोगन का और उसका रूप मिलता है ।”
“कालू ! मुझे ले चल । मैं उसके कदमों में अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलना चाहता हूँ । कालू ! कालू!”
राज पहुँचा और उसने पश्चात्ताप के आँसुओं से सुयशा के चरण धो दिये । सुयशा ने कहाः “भैया ! इन्सान गलतियों का घर है, भगवान तुम्हारा मंगल करें ।”
पुष्पसेनः “देवी ! मेरा मंगल भगवान कैसे करेंगे? भगवान मंगल भी करेंगे तो किसी गुरु के द्वारा । देवी ! तू मेरी गुरु है, मैं तेरी शरण आया हूँ ।”
राजा पुष्पसेन सुयशा के चरणों में गिरा । वही सुयशा का प्रथम शिष्य बना । पुष्पसेन को सुयशा ने गुरुमंत्र की दीक्षा दी । सुयशा की कृपा पाकर पुष्पसेन भी धनभागी हुआ और कालू भी ! दूसरे लोग भी धनभागी हुए । 17वीं शताब्दी का कर्णावती शहर जिसको आज अमदावाद बोलते हैं, वहाँ की यह एक ऐतिहासिक घटना है, सत्य कथा है ।
अगर उस 16 वर्षीय कन्या में धर्म के संस्कार नहीं होते तो नाच-गान करके राजा का थोड़ा प्यार पाकर स्वयं भी नरक में पच मरती और राजा भी पच मरता । लेकिन उस कन्या ने संयम रखा तो आज उसका शरीर तो नहीं है लेकिन सुयशा का सुयश यह प्रेरणा जरूर देता है कि आज की कन्याएँ भी अपने ओज-तेज और संयम की रक्षा करके, अपने ईश्वरीय प्रभाव को जगाकर महान आत्मा हो सकती हैं ।
हमारे देश की कन्याएँ परदेशी भोगी कन्याओं का अनुकरण क्यों करें? लाली-लिपस्टिक लगायी… ‘बॉयकट’ बाल कटवाये… शराब-सिगरेट पी…. नाचा-गाया… धत् तेरे की ! यह नारी स्वातंत्र्य है? नहीं, यह तो नारी का शोषण है । नारी स्वातंत्र्य के नाम पर नारी को कुटिल कामियों की भोग्या बनाया जा रहा है ।
नारी ‘स्व’ के तंत्र हो, उसको आत्मिक सुख मिले, आत्मिक ओज बढ़े, आत्मिक बल बढ़े, ताकि वह स्वयं को महान बने ही, साथ ही औरों को भी महान बनने की प्रेरणा दे सके… अंतरात्मा का, स्व-स्वरूप का सुख मिले, स्व-स्वरूप का ज्ञान मिले, स्व-स्वरूप का सामर्थ्य मिले तभी तो नारी स्वतंत्र है । परपुरुष से पटायी जाय तो स्वतंत्रता कैसी? विषय विलास की पुतली बनायी जाये तो स्वतन्त्रता कैसी?
कब सुमिरोगे राम?…. संत कबीर के इस भजन ने सुयशा को इतना महान बना दिया कि राजा का तो मंगल किया ही… साथ ही कालू जैसे कातिल हृदय भी परिवर्तित कर दिया.. और न जाने कितनों को ईश्वर की ओर लगाया होगा, हम लोग गिनती नहीं कर सकते । जो ईश्वर के रास्ते चलता है उसके द्वारा कई लोग अच्छे बनते हैं और जो बुरे रास्ते जाता है उसके द्वारा कइयों का पतन होता है ।
आप सभी सदभागी हैं कि अच्छे रास्ते चलने की रूचि भगवान ने जगायी । थोड़ा-बहुत नियम ले लो, रोज थोड़ा जप करो, ध्यान करे, मौन का आश्रय लो, एकादशी का व्रत करो…. आपकी भी सुषुप्त शक्तियाँ जाग्रत कर दें, ऐसे किसी सत्पुरुष का सहयोग लो और लग जाओ । फिर तो आप भी ईश्वरीय पथ के पथिक बन जायेंगे, महान परमेश्वरीय सुख को पाकर धन्य-धन्य हो जायेंगे ।
(इस प्रेरणापद सत्संग कथा की ऑडियो कैसेट एवं वी.सी.डी. – ‘सुयशाः कब सुमिरोगे राम?’ नाम से उपलब्ध है, जो अति लोकप्रिय हो चुकी है । आप इसे अवश्य सुनें देखें । यह सभी संत श्री आसारामजी आश्रमों एवं समितियों के सेवा केन्द्रों पर उपलब्ध है ।)