मुक्ताबाई का सर्वत्र विट्ठल-दर्शन
श्रीनिवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर एवं सोपानदेव की छोटी बहन थी मुक्ताबाई । जन्म से ही चारों सिद्ध योगी, परम विरक्त एवं सच्चे भगवदभक्त थे । बड़े भाई निवृत्तिनाथ ही सबके गुरु थे ।
नन्हीं सी मुक्ता कहतीः “विट्ठल ही मेरे पिता हैं । शरीर के माता-पिता तो मर जाते हैं लेकिन हमारे सच्चे माता-पिता, हमारे परमात्मा तो सदा साथ रहते हैं ।”
उसने सत्संग में सुन रखा था कि ‘विट्ठल केवल मंदिर में ही नहीं, विट्ठल तो सबका आत्मा बना बैठा है । सारे शरीरों में उसी की चेतना है । वह कीड़ी में छोटा और हाथी में बड़ा लगता है । विद्वानों की विद्या की गहराई में उसी की चेतना है । बलवानों का बल उसी परमेश्वर का है । संतों का संतत्व उसी परमात्म-सत्ता से है । जिसकी सत्ता से आँखें देखती हैं, कान सुनते हैं, नासिका श्वास लेती है, जिह्वा स्वाद का अनुभव करती है वही विट्ठल है ।’
मुक्ताबाई किसी पुष्प को देखती तो प्रसन्न होकर कह उठती कि विट्ठल बड़े अच्छे हैं ।
एक दिन मुक्ताबाई कह उठीः “विट्ठल ! तुम कितने गंदे हो । ऐसी गंदगी में रहते हो ।”
किसी ने पूछाः “कहाँ है विट्ठल?”
मुक्ताबाईः “देखो न, इस गंदी नाली में विट्ठल कीड़ा बने बैठे हैं ।”
मुक्ताबाई की दृष्टि कितनी सात्त्विक हो गयी थी ! वह सर्वत्र अपने विट्ठल के दीदार कर रही थी ।
चारों बच्चों को एक संन्यासी के बच्चे मानकर कट्टरवादियों ने उन्हें नमाज से बाहर कर दिया था । उनके माता-पिता के साथ तो जुल्म किया ही था, बच्चों को भी समाज से बाहर कर रखा था । अतः कोई उन्हें मदद नहीं करता था । पेट को आहुति देने के लिए वे बच्चे भिक्षा माँगने जाते थे ।
दीपावली के दिन वह बारह वर्षीया मुक्ताबाई निवृत्तिनाथ से पूछती हैः “भैया ! आज दीपावली है, क्या बनाऊँ?”
निवृत्तिनाथः “बहन ! मेरी तो मर्जी है कि आज मीठे चीले बना ले ।”
ज्ञानेश्वरः “तीखे भी तो अच्छे लगते हैं ।”
मुक्ताबाई हर्ष से बोल पड़ीः “मीठे भी बनाऊँगी और नमकीन भी । आज तो दीपावली है ।”
बाहर से तो दरिद्रता दिखती है, समाजवालों ने बहिष्कृत कर रखा है, न धन है, न दौलत, न बैंक बैलेन्स है । न कार है न बँगला । साधारण सा घर है, फिर भी विट्ठल के भाव में सराबोर हृदय के भीतर का सुख असीम है ।
मुक्ताबाई ने अंदर जाकर देखा तो तवा ही नहीं था क्योंकि विसोबा चाटी ने रात्री में ही सारे बर्तन चोरी करवा दिये थे । बिना तवे के चीले कैसे बनेंगे? वह “भैया ! मैं कुम्हार के यहाँ से रोटी सेंकने का तवा ले आती हूँ ।” ऐसा कह जल्दी से निकल पड़ी तवा लाने के लिए । लेकिन विसोबा चाटी ने सभी कुम्हारों को डाँटकर मना कर दिया था कि ‘खबरदार ! इसको तवा दिया तो तुमको जाति से बाहर करवा दूँगा ।’
घूमते-घूमते कुम्हारों के द्वार खटखटाते हुए आखिर उदास होकर वापस लौटी । मजाक उड़ाते हुए विसोबा चाटी ने पूछाः “क्यों? कहाँ गयी थी?”
मुक्ता ने सरलता से उत्तर दियाः “मैं बाहर से तवा लेने गयी थी लेकिन कोई देता ही नहीं है ।”
घर पहुँचते ही ज्ञानेश्वर ने उसकी उदासी का कारण पूछा तो मुक्ता ने सारा हाल सुना दिया ।
ज्ञानेश्वरः “कोई बात नहीं । तू आटा तो मिला ।”
मुक्ताबाईः “आटा तो मिला मिलाया है ।”
ज्ञानेश्वर नंगी पीठ करके बैठ गये । उन योगिराज ने प्राणों का संयम करके पीठ पर अग्नि की भावना की । पीठ तप्त तवे की भाँति लाल हो गयी । “ले जितनी रोटी या चीले सेंकने हो, इस पर सेंक ले ।”
मुक्ताबाई स्वयं योगिनी थी । भाइयों की शक्ति को जानती थी । उसने बहुत से मीठे और नमकीन चीले व रोटियाँ बना लीं । फिर कहाः “भैया ! अपने तवे को शीतल कर लो ।”
ज्ञानेश्वर ने अग्निधारण का उपसंहार कर दिया ।
संकल्प बल से तो अभी भी कुछ लोग चमत्कार करके दिखाते हैं । ज्ञानेश्वर महाराज ने अग्नि तत्त्व की धारणा करके अग्नि को प्रकट कर दिया था । वे सत्य-संकल्प एवं योगशक्ति-संपन्न पुरुष थे । जैसे आप स्वप्न में अग्नि, जल आदि सब बना लेते हैं, वैसे ही योगशक्ति-संपन्न पुरुष जाग्रत में जिस तत्त्व की धारणा करें उसे बढ़ा अथवा घटा सकते हैं ।
जल तत्त्व की धारणा सिद्ध हो जाये तो आप जहाँ जल में गोता मारो और हजारों मील दूर निकलो । पृथ्वी तत्त्व की धारणा सिद्ध है तो आपको यहाँ गाड़ दें और आप हजारों मील दूर प्रकट हो जाओ । ऐसे ही वायु तत्त्व, अग्नि तत्त्व आदि की धारणा भी सिद्ध की जा सकती है । कबीरजी के जीवन में भी ऐसे चमत्कार हुए थे और दूसरे योगियों के जीवन में भी देखे-सुने गये थे ।
मेरे गुरुदेव परम पूज्य स्वामी श्रीलीलाशाहजी महाराज ने नीम के पेड़ को आज्ञा दी कि ‘तू अपनी जगह पर जा ।’ तो वह पेड़ चल पड़ा । तबसे ‘लीलाराम’ में से ‘श्री लीलाशाह’ के नाम से वे प्रसिद्ध हुए । योगशक्ति में बड़ा सामर्थ्य होता है ।
आप ऐसा सामर्थ्य पा लो, ऐसा मेरा आग्रह नहीं है, लेकिन थोड़े से सुख के लिए, क्षणिक सुख के लिए बाहर न भागना पड़े ऐसे स्वाधीन हो जाओ । सिद्धियाँ पाने की कुबेर साधना करना आवश्यक नहीं है लेकिन सुख-दुःख के झटकों से बचने की सरल साधना अवश्य कर लो ।
निवृत्तिनाथ भोजन करते हुए भोजन की प्रशंसा कर रहे थेः “मुक्ति ने निर्मित किये और ज्ञान की अग्नि में सेंके गये चीले के स्वाद का क्या पूछना !”
निवृत्तिनाथ, ज्ञानेश्वर एवं सोपानदेव तीनों भाइयों ने भोजन कर लिया था । इतने में एक बड़ा सा काला कुत्ता आया और बाकी चीले लेकर भागा ।
निवृत्तिनाथ ने कहाः “अरे, मुक्ता ! मार जल्दी इस कुत्तें को । तेरे हिस्से के चीले वह ले जा रहा है । तू भूखी रह जायेगी ।”
मुक्ताबाईः “मारूँ किसे? विट्ठल ही तो कुत्ता बन गये हैं । विट्ठल काला-कलूटा रूप लेकर आये हैं । उनको क्यों मारूँ?”
तीनों भाई हँस पड़े । ज्ञानेश्वर ने पूछाः “जो तेरे चीले ले गया वह काला कलूटा कुत्ता तो विट्ठल है और विसोबा चाटी?”
मुक्ताबाईः “वे भी विट्ठल ही है ।”
अलग-अलग मन का स्वभाव अलग-अलग होता है लेकिन चेतना तो सबमें विट्ठल की ही है । वह बारह वर्षीया कन्या मुक्ताबाई कहती हैः “विसोबा चाटी में भी वही विट्ठल है ।”
विसोबा चाटी कुम्हार के घर से ही मुक्ता का पीछा करता आया था । वह देखना चाहता था कि तवा न मिलने पर ये सब क्या करते हैं? वह दीवार के पीछे से सारा खेल देख रहा था । मुक्ताबाई के शब्द सुनकर विसोबा चाटी का हृदय अपने हाथों में नहीं रहा । भागता हुआ आकर सूखे बाँस की नाईं मुक्ताबाई के चरणों में गिर पड़ा ।
“मुक्तादेवी मुझे माफ कर दो । मेरे जैसा अधम कौन होगा? मैंने बहकानेवाली बातें सुनकर आप लोगों को बहुत सताया है । आप लोग मुझ पामर को क्षमा कर दें । मुझे अपनी शरण में ले लें । आप अवतारी पुरुष हैं । सबमें विट्ठल देखने की भावना में सफल हो गये हैं । मैं उम्र में तो आपसे बड़ा हूँ लेकिन भगवदज्ञान में तुच्छ हूँ । आप लोग उम्र में छोटे हैं लेकिन भगवदज्ञान में पूजनीय, आदरणीय हैं । मुझे अपने चरणों में स्थान दें ।”
कई दिनों तक विसोबा अनुनय-विनय करता रहा । आखिर उसके पश्चाताप को देखकर निवृत्तिनाथ ने उसे उपदेश दिया और मुक्ताबाई से दीक्षा-शिक्षा मिली । वही विसोबा चाटी प्रसिद्ध महात्मा विसोबा खेचर हो गये । जिनके द्वारा प्रसिद्ध संत नामदेव ने दीक्षा प्राप्त की ।
बारह वर्षीया बालिका मुक्ताबाई केवल बालिका नहीं थी, वह तो आद्यशक्ति का स्वरूप थी । जिनकी कृपा से विसोबा चाटी जैसा ईर्ष्यालु प्रसिद्ध संत विसोबा खेचर हो गये !
नारी ! तू नारायणी है । देवी ! संयम-साधना द्वारा अपने आत्मस्वरूप को पहचान ले ।