भक्तिमती जनाबाई
भगवान कब, कहाँ और कैसे अपनी लीला प्रकट करके भक्तों की रक्षा करते हैं, यह कहना मुश्किल है ! भक्तों का इतिहास देखते हैं, उनका चरित्र पढ़ते हैं तब भगवान के अस्तित्व पर विशेष श्रद्धा हो जाती है ।
गोदावरी नदी के तट पर स्थित गंगाखेड़ (जि. परमणी, महाराष्ट्र) गाँव में दमाजी के यहाँ जनाबाई का जन्म हुआ था । जनाबाई के बचपन उसकी माँ चल बसी । माँ का अग्नि-संस्कार करके जब पिता घर आये तब नन्हीं-सी जना ने पूछाः
“पिताजी ! माँ कहाँ गयी ?”
पिताः “माँ पंढरपुर में भगवान विट्ठल के पास गयी है ।”
एक दिन, दो दिन… पाँच दिन… दस दिन… पच्चीस दिन बीत गये । “माँ अभी तक नहीं आयी ? पंढरपुर में विट्ठल के पास बैठी है ? पिता जी ! मुझे भी विट्ठल के पास ले चलो ।” नन्हीं सुकन्या जना ने जिद की ।
पिता बेटी को पंढरपुर ले आये । चंद्रभागा नदी में स्नान करके विट्ठल के मंदिर में गये । नन्हीं-सी जना विट्ठल से पूछने लगीः “मेरी माँ कहाँ गयी ? विट्ठल ! बुलाओ न, मेरी माँ को ।”
‘विट्ठल, विट्ठल…’ करके जना रोने लगी । पिता ने समझाने की खूब कोशिश की किंतु नन्हीं सी बालिका की क्या समझ में आता? इतने में वहाँ दामा शेठ एवं उनकी धर्मपत्नी गोणाई बाई आये । भक्त नामदेव इन्हीं की सन्तान थे । बालिका को देखकर उनका वात्सल्य जाग उठा । उन्होंने जना के पिता से कहाः
“अब यह पंढरपुर छोड़कर तो जायेगी नहीं । आप इसे यहीं छोड़ जाइये । हम इसे अपनी बेटी के समान रखेंगे । यह यहीं रहकर विट्ठल के दर्शन करेगी और अपनी माँ के लिए विट्ठल के दर्शन करेगी और अपनी माँ के लिए विट्ठल को पुकारते-पुकारते अगर इसे भक्ति का रंग लग जाये तो अच्छा ही है ।”
जना के पिता सहमत हो गये एवं जनाबाई को वहीं छोड़ गये । जना को बाल्यकाल से ही भक्त नामदेव का संग मिल गया । जना वहाँ रहकर विट्ठल के दर्शन करती एवं घर के काम-काज में हाथ बँटाती थी । धीरे-धीरे जना की भगवदभक्ति बढ़ गयी ।
समय पाकर नामदेव जी का विवाह हो गया । फिर भी जना उनके घर के सब काम करती थी एवं रोज नियम से विट्ठल के दर्शन करने भी जाती थी ।
एक बार काम की अधिकता से वह विट्ठल के दर्शन करने देर से जा पायी । रात हो गयी थी, सब लोग जा चुके थे । विट्ठल के दर्शन करके जना घर लौट आयी लेकिन दूसरे दिन सुबह विट्ठल भगवान के गले में जो स्वर्ण की माला थी, वह गायब हो गयी !
मंदिर के पुजारी ने कहाः “सबसे आखिर में जनाबाई आयी थी ।”
जनाबाई को पकड़ लिया गया । जना ने कहाः “मैं किसी की सुई भी नहीं लेती तो विट्ठल भगवान का हार कैसे चोरी करूँगी?”
लेकिन भगवान भी मानों, परीक्षा करके अपने भक्त का आत्मबल और यश बढ़ाना चाहते थे । राजा ने फरमान जारी कर दियाः “जना झूठ बोलती है । इसको सरे बाजार से बेंत मारते-मारते ले जाया जाये एवं जहाँ सबको सूली पर चढ़ाया जाता है, वहीं सूली पर चढ़ा दिया जाय ।”
सिपाही जनाबाई को लेने आये । जनाबाई अपने विट्ठल को पुकारती जा रही थीः “हे मेरे विट्ठल ! मैं क्या करूँ? तुम तो सब जानते ही हो…”
गहने बनाने से पूर्व स्वर्ण को तपाया जाता है । ऐसे ही भगवान भी भक्त की कसौटी करते ही हैं । जो सच्चे भक्त होते हैं वे उस कसौटी को पार कर जाते हैं, बाकी के लोग भटक जाते हैं ।
सैनिक जनाबाई को ले जा रहे थे और रास्ते में उसके लिए लोग कुछ-का-कुछ बोलते जा रहे थेः “बड़ी आयी भक्तानी ! भक्ति का ढोंग करती थी… अब तो तेरी पोल खुल गयी ।” यह देख सज्जन लोगों के मन में दुःख हो रहा था ।
ऐसा करते-करते जनाबाई सूली तक पहुँच गयी । तब जल्लादों ने उससे पूछाः “अब तुमको मृत्युदंड दिया जा रहा है, तुम्हारी आखिरी इच्छा क्या है?”
जनाबाई ने कहाः “आप लोग तनिक ठहर जायें ताकि मरते-मरते मैं दो अभंग गा लूँ ।”
आप लोग चौपाई, दोहे, साखी आदि बोलते हो ऐसे ही महाराष्ट्र में ‘अभंग’ बोलते हैं । अभी भी जनाबाई के लगभग तीन सौ अभंग उपलब्ध हैं । जनाबाई भगवत्स्मरण करके श्रद्धा भक्ति भरे हृदय स अभंग द्वारा विट्ठल से प्रार्थना करने लगीः
करो दया हे विट्ठलाया, करो दया हे विट्ठलराया !
छलती कैसे है छलनी माया । ।
करो दया हे विट्ठलराया, करो दया हे विट्ठलराया !
श्रद्धाभक्ति पूर्ण हृदय से की गयी प्रार्थना हृदयेश्वर, सर्वेश्वर तक अवश्य पहुँचती है । प्रार्थना करते-करते उसकी आँखों से अश्रुबिन्दु छलक पड़े और जिस सूली पर उसे लटकाया जाना था, वह सूली पानी हो गयी !
सच्चे हृदय की भक्ति प्रकृति के नियमों में भी परिवर्तन कर देती है । लोग यह देखकर दंग रह गये ! राजा ने उससे क्षमा-याचना की । जनाबाई की जय-जयकार हो गयी ।
विरोधी भले कितना भी विरोध करें लेकिन सच्चे भगवदभक्त तो अपनी भक्ति में दृढ़ रहते हैं । ठीक ही कहा हैः
बाधाएँ कब बाँध सकी हैं, आगे बढ़नेवालों को ।
विपदाएँ कब रोक सकी हैं, पथ पर चलने वालों को । ।
हे भारत की देवियो ! याद करो अपने अतीत की महान नारियों को…. तुम्हारा जन्म भी उसी भूमि पर हुआ है, जिस पुण्य भूमि भारत में सुलभा, गार्गी, मदालसा, शबरी, मीरा, जनाबाई जैसी नारियों ने जन्म लिया था । अनेक विघ्न बाधाएँ भी उनकी भक्ति एवं निष्ठा को न डिगा पायी थीं ।
हे भारत की नारियो ! पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में अपने संस्कृति की गरिमा को भुला बैठना कहाँ तक उचित है? पतन की ओर ले जानेवाली संस्कृति का अनुसरण करने की अपेक्षा अपनी संस्कृति को अपनाओ ताकि तुम्हारा जीवन तो समुन्नत हो ही, तुम्हारी संतान भी सर्वांगीण प्रगति कर सके और भारत पुनः विश्वगुरु की पदवी पर आसीन हो सके….