साध्वी सिरमा
सिंहल देश (वर्तमान श्रीलंका) के एक सदाचारी परिवार में जन्मी हुई कन्या सिरमा में बाल्यकाल से ही भगवदभक्ति प्रस्फुटित हो चुकी थी । वह जितनी सुन्दर थी, उतनी ही सुशील भी थी । 16 वर्ष की उम्र में उसके माँ-बाप ने एक धनवान परिवार के युवक सुमंगल के साथ उसकी शादी करवा दी ।
शादी के पश्चात् सुमंगल विदेश चला गया । वहाँ वह वस्तुओं का आयात-निर्यात करता था । कुछ वर्षों में उसने काफी संपत्ति इकट्ठी कर ली और स्वदेश लौट चला । कुटुंबियों ने सोचा कि सुमंगल वर्षों बाद घर लौट रहा है, अतः उसका आदर-सत्कार होना चाहिए गाँव भर के जाने माने लोगों को आमंत्रित किया गया और सब सुमंगल को लेने चले । भीड़ में उस जमाने की गणिका मंदारमाला भी थी ।
मंदारमाला के सौन्दर्य को देखकर सुमंगल मोहित हो गया एवं सुमंगल के आकर्षक व्यक्तित्व से मंदारमाला भी घायल हो गयी । भीड़ को समझते देर न लगी कि दोनों एक-दूसरे से घायल हो गयी । सुमंगल को लेकर शोभायात्रा उसके घर पहुँची । सुमंगल को उदास देखकर बोलीः
“देव ! आप बड़े उदास एवं व्यथित लग रहे हैं । आपकी उदासी एवं व्यथा का कारण मैं जानती हूँ ।”
सुमंगलः “जब जानती है तो क्या पूछती है? अब उसके बिना नहीं रहा जाता ।”
यह सुनकर सिरमा ने अपना संतुलन न खोया क्योंकि वह प्रतिदिन भगवान का ध्यान करती थी एवं शांत स्वभाव का धन, विवेक-वैराग्यरूपी धन और विपत्तियों में भी प्रसन्न रहने की समझ का धन उसके पास था ।
सुविधाएँ हो और आप प्रसन्न रहें- इतना तो लालिया, मोतिया और कालिया कुत्ता भी जानता है । वह भी जलेबी देखकर पूँछ हिला देता है और डंडा देखकर पूंछ दबा देता है । सुख में सुखी एवं दुःख में दुःखी नहीं होता लेकिन सर्वोत्तम तो वह है जो सुख-दुःख को सपना मानता है एवं सच्चिदानंद परमात्मा को अपना मानता है ।
सिरमा ने कहाः “नाथ ! आपकी परेशानी का कारण तो मैं जानती हूँ, उसे दूर करने में मैं पूरा सहयोग दूँगी । आप अपनी परेशानियों को मिटाने में मेरे पूरे अधिकार का उपयोग कर सकते हैं । कोई उपाय खोजा जायेगा ।”
इतने में ही मंदारमाला की नौकरानी आकर बोलीः
“सुमंगल ! आपको मेरी मालकिन अपने महल में बुला रही हैं ।”
सिरमा ने कहाः “जाकर अपनी मालकिन से कह दो कि इस बड़े घर की बहूरानी बनना चाहती हो तो तुम्हारे लिए द्वार खुले हैं । सिरमा अपने सारे अधिकार तुम्हें सौंपने को तैयार है लेकिन इस बड़े खानदान के लड़के को अपने अड्डे पर बुलाकर कलंक का टीका मत लगाओ । यह मेरी प्रार्थना है ।”
सिरमा की नम्रता ने मंदारमाला के हृदय को द्रवित कर दिया और वह वस्त्रालंकार से सुसज्जित होकर सुमंगल के घर आ गयी । सिरमा ने दोनों का गंधर्व विवाह करवा दिया और किसी सच्चे संत से दीक्षा लेकर स्वयं साध्वी बन गयी । सिरमा की समझ व मंत्रजाप की तत्परता ने उसे ऋद्धि-सिद्धि की मालकिन बना दिया । सिरमा का मनोबल, बुद्धिबल, तपोबल और यौगिक सामर्थ्य इतना निखरा कि कई साधक सिरमा को प्रणाम करने आने लगे ।
एक दिन एक साधक, जिसका सिर फूटा हुआ था और खून बह रहा था, सिरमा के पास आया । सिरमा ने पूछाः “भिक्षुक ! तुम्हारा सिर फूटा है…. क्या बात है?”
भिक्षुकः “मैं भिक्षा लेने के लिए सुमंगल के घर गया था । मंदारमाला के हाथ में जो बर्तन था वही बर्तन उन्होंने मेरे सिर पर दे मारा । इससे मेरा सिर फूट गया ।”
सिरमा को बड़ा दुःख हुआ कि मंदारमाला को पूरी जायदाद मिल गयी और मेरा ऐसा सुन्दर, धनी , पवित्र स्वभाववाला व्यापारी पति मिल गया, फिर वह क्यों दुःखी है? संसार में जब तक सच्ची समझ, सच्चा ज्ञान नहीं मिलता, तब तक मनुष्य के दुःखों का अंत नहीं होता । शायद वह दुःखी होगी ।…. और दुःखी व्यक्ति ही साधुओं को दुःख देगा । सज्जन व्यक्ति साधुओं को दुःख नहीं देगा वरन् उनसे सुख लेगा, आशीर्वाद ले लेगा । मंदारमाला अति दुःखी है, तभी उसने भिक्षुक को भी दुःखी कर दिया ।
सिरमा गयी मंदारमाला के पास और बोलीः “मंदारमाला ! उस भिक्षुक के, अकिंचन साधु के भिक्षा माँगने पर तू भिक्षा नहीं देती तो चलता, लेकिन उसका सिर क्यों फोड़ दिया?”
मंदारमालाः बहन ! मैं बहुत दुःखी हूँ । सुमंगल ने तुझे छोड़कर मुझसे शादी की और अब मेरे होते हुए एक दूसरी नर्तकी के यहाँ जाता है । वह मुझसे कहता है कि मैं परसों उसके साथ शादी कर लूँगा । मैंने तो अपने सुख को सँभाल रखा था लेकिन सुख तो सदा टिकता नहीं है । तुम्हारा दिया हुआ यह खिलौना अब दूसरा खिलौना लेने का भाग रहा है ।”
सिरमा को दुःखाकार वृत्ति का थोड़ा धक्का लगा, किंतु वह सावधान थी । रात्रि को वह अपने कक्ष में दीया जलाकर बैठ गयी एवं प्रार्थना करने लगीः ‘हे भगवान ! तुम प्रकाशस्वरूप हो, ज्ञानस्वरूप हो । मैं तुम्हारी शरण आयी हूँ । तुम अगर चाहो तो सुमंगल को वास्तव में सुमंगल बना सकते हो । सुमंगल, जिससे जल्दी मृत्यु हो जाये ऐसे भोग-पर-भोग बढ़ा रहा है एपं नरक की यात्रा कर रहा है । उसे सत्प्रेरणा देकर, इन विकारों से बचाकर, अपने निर्विकारी, शांत, आनंद एवं माधुर्यस्वरूप में लगाने में हे प्रभु ! तुम सक्षम हो…’
सिरमा प्रार्थना किये जा रही है एवं टकटकी लगाकर दीये की लौ को देखे जा रही है । ध्यान करते-करते सिरमा शांत हो गयी । उसकी शांति ही परमात्मा तक पैगाम पहुँचाने का साधन बन गयी । ध्यान करते-करते उसे कब नींद आ गयी, पता नहीं । लेकिन जो नींद के समय भी तुम्हारे चित्त की चेतना को, रक्तवाहिनियों को सत्ता देता है, वह प्यारा कैसे चुप बैठता ?
प्रभात में सुमंगल को भयानक स्वप्न आया कि ‘मेरा विकारी-भोगी जीवन मुझे घसीटकर यमराज के पास ले गये एवं तमाम भोगियों की जो दुर्दशा हो रही है, वही मेरी भी होने जा रही है । हाय ! मैं यह क्या देख रहा हूँ?’ सुमंगल चौंक उठा और उसकी आँख खुल गयी । प्रभात का स्वप्न सत्य का संकेत देने वाला होता है ।
सुबह होते-होते सुमंगल ने अपनी सारी धन-सम्पत्ति गरीब-गुरबों में बाँटकर एवं सत्कर्मों में लगाकर दीक्षा ले ली । अब तो सिरमा जिस रास्ते जा रही है, भोग के कीचड़ में पड़ा हुआ सुमंगल भी उसी रास्ते अर्थात् आत्मोद्घार के रास्ते जाने का संकल्प करके चल पड़ा ।
वह अंतःचेतना कब, किस व्यक्ति के अंतःकरण में जाग्रत हो और वह भोग के दलदल से तथा अहंकार के विकट मार्ग से बचकर सहज स्वभाव को अपनाकर सरल मार्ग से सत्-चित्-आनंदस्वरूप ईश्वर की ओर चल पड़े, कहना मुश्किल है ।
धन्य है सिरमा, जो स्वयं तो उस पथ पर चली ही, साथ ही अपने विकारी पति को भी उस पथ पर चलाने में सहायक हो गयी !