ब्रह्मवादिनी वाक्
वाक् अभृण ऋषि की कन्या थी । यह प्रसिद्ध ब्रह्मवादिनी थी और इन्होंने भगवती देवी के साथ अभिन्नता प्राप्त कर ली थी । ऋग्वेद संहिता के दशम मण्डल के १२५ वें सूक्त में देवीसूक्त के नाम से जो आठ मंत्र हैं, वें इन्हीं के रचे हुए हैं ।
चण्डीपाठ के साथ इन आठ मन्त्रों के पाठक बड़ा माहात्म्य माना जाता है । इन मन्त्रों में स्पष्टतया अद्वैतवाद का सिद्धांत प्रतिपादित है । मन्त्रों का यह अर्थ है –
मैं सच्चिदानंदमयी सर्वात्मा देवी रूद्र, वसु, आदित्य तथा विश्वेदेव गणों के रुप में विचरती हूँ । मैं ही मित्र और वरुण दोनों को, इन्द्र और अग्नि को तथा दोनों अश्विनी कुमारों को धारण करती हूँ । मैं ही शत्रुओं के नाशक आकाशचारी देवता सोम को, त्वष्टा प्रजापति को तथा पूषा और भग को भी धारण करती हूँ । जो हविष्य से सम्पन्न हो देवताओं के उत्तम हविष्य की प्राप्ति कराता हैं, तथा उन्हें सोमरस के द्वारा तृप्त करता है, उस यजमान के लिये मैं ही उत्तम यज्ञ का फल और धन प्रदान करती हूँ ।
मैं सम्पूर्ण जगत की अधीश्वरी, अपने उपासकों को धन की प्राप्ति करानेवाली, साक्षात्कार करने योग्य परब्रह्म को अपने से अभिन्न रुप में जाननेवाली तथा पूजनीय देवताओं में प्रधान हूँ । मैं प्रपञ्च रूप से अनेकों भावों में स्थित हूँ । सम्पूर्ण भूतप्राणियों में मेरा प्रवेश हैं । अनेक स्थानों में रहनेवाले देवता जहाँ कहीं जो कुछ भी करते हैं, सब मेरे लिये ही करते हैं ।
जो अन्न खाता हैं, वह मेरी ही शक्ति से खाता हैं ; इसी प्रकार जो देखता हैं, जो साँस लेता हैं तथा जो कही हुई बात सुनता है, वह मेरी ही सहायता से उक्त सब कर्म करने में समर्थ होता है । जो मुझे इस रुप में नहीं जानते, वे न जानने के कारण ही हीन दशा को प्राप्त होते जाते हैं । हे बहुश्रुत ! मैं तुम्हें श्रद्धा से प्राप्त होनेवाले ब्रम्हतत्व का उपदेश करती हूँ, सुनो – मैं स्वयं ही देवताओं और मनुष्यों के द्वारा सेवित इस दुर्लभ तत्व का वर्णन करती हूँ । मैं जिस-जिस पुरुष की रक्षा करना चाहती हूँ, उस-उस को सबकी अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बना देती हूँ । उसीको सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, परोक्ष ज्ञान-संपन्न ऋषि तथा उत्तम मेधाशक्ति से युक्त बनाती हूँ ।
मैं ही ब्रह्म द्वेषी हिंसक असुरों का वध करके रुद्र के धनुष को चढ़ाती हूँ । मैं ही शरणागत जनों की रक्षा के लिये शत्रुओं से युद्ध करती हूँ तथा अन्तर्यामी रूप से पृथ्वी और आकाश के भीतर व्याप्त रहती हूँ ।
मैं ही इस जगत के पिता रूप आकाश को सर्वाधिष्ठानस्वरूप परमात्मा के ऊपर उत्त्पन्न करती हूँ । समुद्र में तथा जल में मेरे कारण (कारणस्वरूप चैतन्य ब्रह्म) की स्थिति है । अतएव मैं समस्त भुवन में व्याप्त रहती हूँ तथा उस स्वर्गलोक का भी अपने शरीर से स्पर्श करती हूँ । मैं कारणरूप से जब समस्त विश्व की रचना आरम्भ करती हूँ, तब दूसरों की प्रेरणा के बिना स्वयं ही वायु की भाँति चलती हूँ, स्वेच्छा से ही कर्म में प्रवृत होती हूँ । मैं पृथ्वी और आकाश दोनों से परे हूँ । अपनी महिमा से ही मैं ऐसी हुई हूँ ।