ब्रह्मवादिनी विदुषी गार्गी
ब्रह्मवादिनी विदुषी गार्गी का नाम वैदिक साहित्य में अत्यंत विख्यात है । उनका असली नाम क्या था, यह तो ज्ञात नहीं है किंतु उनके पिता का नाम वचक्नु था । अतः वचक्नु की पुत्री होने के कारण उनका नाम ‘वाचक्नवी’ पड़ गया । गर्ग गोत्र में उत्पन्न होने के कारण लोग उन्हें गार्गी कहते थे । यह गार्गी नाम ही जनसाधारण से प्रचलित हुआ ।
‘बृहदारण्यक उपनिषद् में गार्गी के शास्त्रार्थ का प्रसंग वर्णित हैः
विदेह देश के राजा जनक ने एक बहुत बड़ा ज्ञानयज्ञ किया था । उसमें कुरु और पांचाल देश के अनेकों विद्वान ब्राह्मण एकत्रित हुए थे । राजा जनक बड़े विद्या-व्यासंगी एवं सत्संगी थे । उन्हें शास्त्र के गूढ़ तत्त्वों का विवेचन एवं परमार्थ-चर्चा ही अधिक प्रिय थी । इसलिए उनके मन में यह जानने की इच्छा हुई कि यहाँ आये हुए विद्वान ब्राह्मणों में सबसे बढ़कर तात्त्विक विवेचन करने वाला कौन है? इस परीक्षा के लिए उन्होंने अपनी गौशाला में एक हजार गौएँ बँधवा दीं । सब गौओं के सींगों पर दस-दस पाद (एक प्राचीन माप-कर्ष) सुवर्ण बँधा हुआ था । यह व्यवस्था करके राजा जनक ने उपस्थित ब्राह्मण-समुदाय से कहाः
“आप लोगों में से जो सबसे बढ़कर ब्रह्मवेत्ता हो, वह इन सभी गौओं को ले जाये ।”
राजा जनक की यह घोषणा सुनकर किसी भी ब्राह्मण में यह साहस नहीं हुआ कि उन गौओं को ले जाय । सब सोचने लगे कि ‘यदि हम गौएँ ले जाने को आगे बढ़ते हैं तो ये सभी ब्राह्मण हमें अभिमानी समझेंगे और शास्त्रार्थ करने लगेंगे । उस समय हम इन सबको जीत सकेंगे या नहीं, क्या पता? यह विचार करते हुए सब चुपचाप ही बैठे रहे ।
सबको मौन देखकर याज्ञवल्क्यजी ने अपने ब्रह्मचारी सामश्रवा से कहाः “हे सौम्य ! तू इन सब गौओं को हाँक ले चल ।”
ब्रह्मचारी ने आज्ञा पाकर वैसा ही किया । यह देखकर सब ब्राह्मण क्षुब्ध हो उठे । तब विदेहराज जनक के होता अश्वल याज्ञवल्क्यजी से पूछ बैठेः “क्यों? क्या तुम्हीं ब्रह्मनिष्ठ हो? हम सबसे बढ़कर ब्रह्मवेत्ता हो?
यह सुनकर याज्ञवल्क्यजी ने नम्रतापूर्वक कहाः
“नहीं, ब्रह्मवेत्ताओं को तो हम नमस्कार करते हैं । हमें केवल गौओं की आवश्यकता है, अतः गौओं को ले जाते हैं ।”
फिर क्या था ? शास्त्रार्थ आरंभ हो गया । यज्ञ का प्रत्येक सदस्य याज्ञवल्क्यजी से प्रश्न पूछने लगा । याज्ञवाल्क्यजी इससे विचलित नहीं हुए । वे धैर्यपूर्वक सभी के प्रश्नों का क्रमशः उत्तर देने लगे । अश्वल ने चुन-चुनकर कितने ही प्रश्न किये, किंतु उचित उत्तर मिल जाने के कारण वे चुप होकर बैठ गये । तब जरत्कारू गोत्र में उत्पन्न आर्तभाग ने प्रश्न किया । उनको भी अपने प्रश्न का यथार्थ उत्तर मिल गया, अतः वे भी मौन हो गये । फिर क्रमशः लाह्यायनि भुज्यु, चाक्रायम उषस्त एवं कौषीतकेय कहोल प्रश्न करके चुप होकर बैठ गये । इसके बाद वाचक्नवी गार्गी ने पूछाः “भगवन ! यह जो कुछ पार्थिव पदार्थ हैं, वे सब जल में ओत प्रोत हैं । जल किसमें ओतप्रोत है?
याज्ञवल्क्यजीः “जल वायु में ओतप्रोत है ।”
“वायु किसमें ओतप्रोत है?”
“अन्तरिक्षलोक में ।”
“अन्तरिक्षलोक किसमें ओतप्रोत है?”
“गन्धर्वलोक में ।”
“गन्धर्वलोक किसमें ओतप्रोत है?”
“आदित्यलोक में ।”
“आदित्यलोक किसमें ओतप्रोत है?”
“चन्द्रलोक में ।”
“चन्द्रलोक किसमें ओतप्रोत है?”
नक्षत्रलोक में ।”
“नक्षत्रलोक किसमें ओतप्रोत है?”
“देवलोक में ।”
“देवलोक किसमें ओतप्रोत है?”
“इन्द्रलोक में ।”
“इन्द्रलोक किसमें ओतप्रोत है?”
“प्रजापतिलोक में ।”
“प्रजापतिलोक किसमें ओतप्रोत है?”
“ब्रह्मलोक में ।”
“ब्रह्मलोक किसमें ओतप्रोत है?”
इस पर याज्ञवल्क्यजी ने कहाः “हे गार्गी ! यह तो अतिप्रश्न है । यह उत्तर की सीमा है । अब इसके आगे प्रश्न नहीं हो सकता । अब तू प्रश्न न कर, नहीं तो तेरा मस्तक गिर जायेगा ।”
गार्गी विदुषी थीं । उन्होंने याज्ञवल्क्यजी के अभिप्राय को समझ लिया एवं मौन हो गयीं । तदनन्तर आरुणि आदि विद्वानों ने प्रश्नोत्तर किये । इसके पश्चात् पुनः गार्गी ने समस्त ब्राह्मणों को संबोधित करते हुए कहाः “यदि आपकी अनुमति प्राप्त हो जाय तो मैं याज्ञवल्क्यजी से दो प्रश्न पूछूँ । यदि वे उन प्रश्नों का उत्तर दे देंगे तो आप लोगों में से कोई भी उन्हें ब्रह्मचर्चा में नहीं जीत सकेगा ।”
ब्राह्मणों ने कहाः “पूछ लो गार्गी !”
तब गार्गी बोलीः “याज्ञवल्क्यजी ! वीर के तीर के समान ये मेरे दो प्रश्न हैं । पहला प्रश्न हैः द्युलोक के ऊपर, पृथ्वी का निम्न, दोनों का मध्य, स्वयं दोनों और भूत भविष्य तथा वर्तमान किसमें ओतप्रोत हैं?”
याज्ञवल्क्यजीः “आकाश में ।”
गार्गीः “अच्छा… अब दूसरा प्रश्नः यह आकाश किसमें ओतप्रोत है?”
याज्ञवल्क्यजीः “इसी तत्त्व को ब्रह्मवेत्ता लोग अक्षर कहते हैं । गार्गी यह न स्थूल है न सूक्ष्म, न छोटा है न बड़ा । यह लाल, द्रव, छाया, तम, वायु, आकाश, संग, रस, गन्ध, नेत्र, कान, वाणी, मन, तेज, प्राण, मुख और माप से रहित है । इसमें बाहर भीतर भी नहीं है । न यह किसी का भोक्ता है न किसी का भोग्य ।”
फिर आगे उसका विशद निरूपण करते हुए याज्ञवल्क्यजी बोलेः “इसको जाने बिना हजारों वर्षों को होम, यज्ञ, तप आदि के फल नाशवान हो जाते हैं । यदि कोई इस अक्षर तत्त्व को जाने बिना ही मर जाय तो वह कृपण है और जान ले तो यह ब्रह्मवेत्ता है ।
यह अक्षर ब्रह्म दृष्ट नहीं, द्रष्टा है । श्रुत नहीं, श्रोता है । मत नहीं, मन्ता है । विज्ञात नहीं, विज्ञाता है । इससे भिन्न कोई दूसरा द्रष्टा, श्रोता, मन्ता, विज्ञाता नहीं है । गार्गी ! इसी अक्षर में यह आकाश ओतप्रोत है ।”
गार्गी याज्ञवल्क्यजी का लोहा मान गयी एवं उन्होंने निर्णय देते हुए कहाः “इस सभा में याज्ञवल्क्यजी से बढ़कर ब्रह्मवेत्ता कोई नहीं है । इनको कोई पराजित नहीं कर सकता । हे ब्राह्मणो ! आप लोग इसी को बहुत समझें कि याज्ञवल्क्यजी को नमस्कार करने मात्र से आपका छुटकारा हुए जा रहा है । इन्हें पराजित करने का स्वप्न देखना व्यर्थ है ।”
राजा जनक की सभा ! ब्रह्मवादी ऋषियों का समूह ! ब्रह्मसम्बन्धी चर्चा ! याज्ञवल्क्यजी की परीक्षा और परीक्षक गार्गी ! यह हमारी आर्य के नारी के ब्रह्मज्ञान की विजय जयन्ती नहीं तो और क्या है?
विदुषी होने पर भी उनके मन में अपने पक्ष को अनुचित रूप से सिद्ध करने का दुराग्रह नहीं था । ये विद्वतापूर्ण उत्तर पाकर संतुष्ट हो गयीं एवं दूसरे की विद्वता की उन्होंने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा भी की ।
धन्य है भारत की आर्य नारी ! जो याज्ञवल्क्यजी जैसे महर्षि से भी शास्त्रार्थ करनें हिचकिचाती नहीं है । ऐसी नारी, नारी न होकर साक्षात् नारायणी ही है, जिनसे यह वसुन्धरा भी अपने-आपको गौरवान्वित मानती है ।
( बृहदारण्यक उपनिषद् पर आधारित)