ब्रम्हज्ञानिनी सुलभा
अनेक ब्रम्हवादी जनक की सभाको सुशोभित करते हैं । परंतु अभी भी वादके द्वारा अपने मतकी स्थापना और दूसरोंके मतका खंडन करने की उनकी प्रवृत्ति गई नहीं । यह तो अपूर्णता का परिचायक है ।
आत्मस्वरूपकी उपलब्धि के अनन्तर कौन किसका खंडन करेगा । ऐसे विवेकी, साधुसेवी नरेश को अपूर्ण नहीं रहना चाहिये ।’ नैष्ठिक ब्रह्मचारिणी, ब्रम्हनिष्ठा, तपस्विनी सुलभा तक जनककी कीर्ति पहुँच चुकी थी | उनके कोमल हृदयमें करुणा का स्रोत उमड़ा और महाराज विदेहकी भ्रान्ति दूर करनेका उन्होंने निश्चय कर लिया । योगबलसे उन्होंने एक सुन्दर तपस्विनी स्त्रीका वेष धारण किया और पहुँची ।
महाराज जनकने उनका स्वागत किया । पह्या-अर्ध्यदिसे सत्कार किया । उनके भोजन करके सन्तुष्ट होकर आसनपर विराजने के पश्चात बड़ी नम्रता से महाराजने पूछा, देवि ! आप कौन है ? किसकी पुत्री हैं ? कहाँ से पधारी हैं और कहाँ जाना है ?
आप क्या करना चाहती हैं ? प्रश्न किये बिना कोई किसोका परिचय जान नहीं सकता । मैं आपके साथ परमार्थ सम्बन्धी चर्चा करना चाहता हुँ |’
सन्यासि को मौन देखकर महाराज ने कहा, ‘मै आपका परिचय दिये देता हुँ | मैं परमयोगी महात्मा पञ्चशिख का शिष्य हुँ | मेरे सम्पूर्ण संशयों का उन्होंने मूलोच्छेद कर दिया है । मैंने योग तथा सांख्यशास्त्र के सम्पूर्ण रहस्य प्राप्त कर लिये हैं ।
मोक्षके साधन कर्म, ज्ञान तथा उपासना-इन तीनोंको में भली प्रकार जानता हूँ । महात्मा पञ्चशिखने यहाँ चातुर्मास्य किया था और उसी समय उन्होंने मुझे योगविद्या की शिक्षा दी । उन्होंने मुझे राज्य त्यागकर वन में जाने की आजा नहीं दी ।
मेरे गुरुदेवने मुझे निष्काम कर्म की आज्ञा दी है ।’
इसके पश्चात महाराजने अपनी अन्त: स्थितिका परिचय दिया ‘ज्ञान से मोक्ष होता है । योग से ज्ञान होता है और ज्ञानसे ही सुख दुःखादि द्वन्द दूर हो जाते हैं । यह ज्ञान मैंने प्राप्त किया है । इस सांसारिक जीवनसे मुझे कोई आसक्ति नहीं। मेरे कर्मबीज गुरुवाक्यों की ज्ञानाग्रि में भुने जा चुके हैं। अब उनमें अंकुरित होने की शक्ति नहीं । कोई मेरे एक हाथ को चन्दन लगाये तथा दूसरे को लकड़ी की भाँति छिले, तो भी मेरे लिये दोनों समान हैं |मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में मुझे कोई वैषम्य नहीं जान पड़ता ।कर्म से लाभ होता हो तो भी उसकी अपेक्षा न करना और कर्मों का प्रयोजन न रहा हो तो भी उनका त्याग न करना चाहिये, यह मुझे गुरु ने उपदेश किया है | प्रयत्न, नियम, राग-द्वेष, कामना, परिग्रह, मान, दम्भ, स्त्रेहादि सम्पूर्ण विषयों में समान रहनेकी मुझे शिक्षा मिली है । गैरिकवस्त्र, कमण्डलु, दण्ड धारणादि त्याग के बाह्य चिह्न हैं । ये मोक्ष के कारण नहीं । मोक्षके लिये किसी वस्तुका त्याग या स्वीकार आवश्यक नहीं । ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है | राज्य-वैभवादिमें होकर भी मैं उनसे अलिप्त हूँ ।
स्नेह-बन्धनको मैंने विचार एवं त्यागके खड़ग से काट दिया है ।’
महाराज ने इस प्रकार अपना परिचय देकर पुनः पूछा, ‘आप में योग का प्रभाव देखकर मेरा आपके प्रति आदर भाव है |आश्चर्य है कि आपका सौन्दर्य एवं अवस्था योग के अनुरूप नहीं । आपमें संन्यासियों के योग्य, यम, नियम, संयम स्पष्ट लक्षित हैं ।
आपने आडम्बर तो नहीं किया है ।आप क्यों आयीं ? आपका उद्देश्य क्या हैं ? जो भी हो, मैं कहूंगा कि आप अपने संन्यास- धर्मपर सदा स्थिर रहें । मुझे लगता है कि गुप्त वेष में आप मेरे ज्ञान की परीक्षा लेने पधारी हैं । आपका यहाँ आनेका कारण, जाति तथा साधनाभ्यास में जानना चाहता हूँ ।’
संन्यासिनीने किसी रोष एवं असन्तोष का भाव व्यक्त नहीं किया । उसने प्रथम बतलाया कि कैसे बोलना चाहिये | बोलनेमें किस प्रकार के शब्दों का उपयोग करना चाहिये । वाणी में नव दोष होते हैं और नव दोष बुद्धिदोष उत्पन्न करते हैं । इन अठारह दोषों से बचकर अठारह गुणोंसे युक्त वाणी ही श्रेष्ठ होती है । वाक्य कैसे होना चाहिये, यह भी उसने बताया। स्पष्ट अर्थयुक्त, द्वि- अर्थ दोष से रहित, आठ गुणवाला वाक्य होना चाहिये । इस प्रकार काम, क्रोध, भय, लोभ, दैन्य, गर्व, लज्जा,
दया तथा मानके द्वारा प्रेरित वाक्य भी दूषित होता है । यह बड़ा सुन्दर एवं विशद विषय है । भाषाशास्त्र का इससे घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
महाभारतके शान्तिपर्वमें जनक-सुलभा-संवाद में ही इसे भली प्रकार देखना चाहिये ।
सुलभाने वाक्य एवं भाषा के गुण-दोष निरूपण करके महाराजसे कहा, ‘जैसे लाख और काष्ठ, जल और धूलिके संयोगसे ये पदार्थ परस्पर संधिभूत होते हैं, इसी प्रकार देहसे पृथक् आत्मासे शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध – ये तन्मात्राएँ अपनी इन्द्रियों के साथ संश्लिष्ट हैं । इस विषयमें पूछने योग्य क्या है ? तुम पूछते हो कि मैं कौन हूँ, पर यह प्रश्न निरर्थक है । जड एवं चेतनके संयोगके मिथ्या ज्ञानसे मेरे निर्माणको प्रतीति है। तुम्हारी भी प्रतीति ऐसी ही है। चेतना को एक एवं अविभाज्य है तथा जड, मेरे, तुम्हारे तथा सभी शरीरों में वही हैं । जैसे रेतके कण एक-दूसरेसे लगे होनेपर भी परस्पर एक-दूसरेको नहीं जानते। वैसे प्राणी भी परस्पर एक-दूसरेको आत्मस्वरूप नहीं जानते। नेत्र अपनेको देख नहीं पाता, रसना अपना स्वाद नहीं लेती। कोई अपनेको पहचानता नहीं। इन्द्रियाँ भी एक-दूसरीको नहीं जानती। जैसे नेत्र बाह्य सूर्यके प्रकाशके बिना वस्तुओं को देखने में असमर्थ हैं, वैसे ही इन्द्रियाँ को भी बाह्य पदार्थोंकी अनुभूतिके लिये गुणोंकी आवश्यकता होती है। पञ्च कर्मेन्द्रिय, पञ्च ज्ञानेन्द्रिय मन, बुद्धि, सत्त्व, अहं, अविद्या, प्रकृति व्यक्ति, द्वन्द्नुभूतिकी शक्ति, काल, विधि, वीर्य, बल तथा सप्तधा प्रकृति-ये तीस गुण हैं। ये तौ सों जहाँ सन्धीभावमें हों, उसे शरीर कहते हैं । अव्यक्त प्रकृति उपर्युक्त गुणोंको स्वीकार करके जो व्यक्तरूप बनाया है, वही मैं हूँ । तुम और दूसरे शरीरधारी भी वही हैं । तुम कौन हो ? तुम्हारा यह प्रश्न व्यर्थ है ।’
इस प्रकार तत्वज्ञान के विविध भाँतिसे उपदेश करनेके अनन्तर संन्यासिनीने बताया, ‘मैं जतिसे क्षत्रिया हूँ । मेरी उत्पत्ति शुद्ध है । मैंने योग्य वर न मिलनेसे विवाह नहीं किया । प्रधान नामक राजर्षिके कुलमें मैं उत्पन्न हूँ । मोक्षधर्म में प्रवृत्त होकर मैंने संन्यासियों के व्रतको स्वीकार कर लिया है । मैं एकाकी पर्यटन करती हूँ । किसी छल या कपटसे मैं यहाँ नहीं आयो हूँ । मुझे किसीका धन हरण नहीं करना है और न मैं धर्मभ्रष्ट हूँ । मैं अपने भारत में स्थिर हूँ । तुम्हारी अत्यंत कीर्ति सुनकर मैं यहाँ आयी । तुम्हारे विचारों भ्रान्ति दूर कर तुम्हें योग्य मार्ग दिखलाने में यहाँ आयी हूँ । मैं तुम्हारे भलेके लिये कहती हूँ |स्वपक्ष-समर्थन तथा परपक्ष-खण्डनकी तुम्हारी प्रवृत्ति बतलाती है कि अभी तुम्हारा अपने स्वपक्षमें आग्रह है । जहाँ एक ही आत्मतत्त्व है, वहाँ स्व और पर कहाँ ? कहाँ पक्ष और कहाँ विपक्षी ? तुम उसी आत्मतत्त्वमें स्थित होकर इस आग्रहसे उपरत हो जाओ ।’
सुलभाने महाराज जनकसे सत्कार प्राप्त कर एक रात्रि ही निवास किया और दूसरे दिन वहाँ से प्रस्थान किया ।