नागगंधा बनी महान योगिनी
सदगुरु इस पृथ्वी पर साक्षात् ईश्वर हैं, सच्चे मित्र एवं परम विश्वसनीय बंधु हैं । वे ज्ञान के पथप्रदर्शक हैं, उद्धारक एवं संरक्षक हैं । संसार-सागर से पार जाने के लिए गुरुही एकमात्र आधार हैं । दोषो-दुर्गुणों एवं स्वार्थ से भरे इस में सतगुरु के सिवा और कोई उचित मार्गदर्शन नहीं दे सकता । इसलिए सभी सत्शास्त्रों, अवतारों एवं महापुरुषों में सच्चे सद्गुरुओं की महिमा गायी है ।अरे, जिन सद्ग्रंथो ने सतगुरु की महिमा गायी है उनका पाठ करने से भी जीवन की अनेक समस्याओं का निवारण हो जात है, जीवन ईश्वरीय आनंद से ओतप्रोत हो जाता है । ऐसा ही एक अद्भुत ग्रंथ है ‘श्री गुरुगीता’ इसका पठन-मनन संसाररूपी रोग का नाश करनेवाला है, दुखी लोगों के दुःख दूर करनेवाला है ।
शिवजी स्वयं कहते हैं कि ‘गुरुगीता का एक-एक अक्षर मंत्रराज है । यह सर्वपाप को हरनेवाली सर्वदारिद्रय का नाश करनेवाली है । इसके पाठ जो-जो आकांक्षा की जाती है वह अवश्य सिद्ध होती है ।’
इन वनों का प्रत्यक्ष उदाहरण है यह जीवनप्रसंग
कश्मीर की एक बालिका थी, नाम था नागगंधा । समय पाकर उसका विवाह हुआ पर वैवाहिक जीवन बड़ा प्रताड़नापूर्ण था । उसे घर के कार्य अकेले ही करने पड़ते और ऊपर से ससुरालवालों के व्यंग्यबाण सहने पड़ते थे । उस असहनीय पीड़ा से नागगंधा हमेशा दुःखी रहती थी पर करती भी क्या ? अन्य कोई मार्ग भी नहीं था ।
एक दिन थकी-हारी नागगंधा भगवान से प्रार्थना करते-करते जमीन पर ही सो गयी । स्वप्न में एक अजगैबी आवाज सुनाई दी : ‘बेटी ! तेरे साथ जो कुछ भी हो रहा है वह पूर्वजन्म के कर्मा का फल है एवं थोड़े ही दिनों में समाप्त हो जायेगा । उसके शीघ्र निवारण और अपने उत्तम भविष्य के लिए तू ‘गुरुगीता’ का अनुष्ठान कर ।’
नागगंधा की नींद टूटी, वह उठ के सोचने लगी कि ‘यह गुरुगीता क्या है, इसका अनुष्ठान कैसे करूँ ?’ शाम को जब वह नदी पर जल भरने पहुँची तो वहाँ के एकांत सन्नाटे में कहीं से आकर एक अजनबी वृद्ध ब्राह्मण ने उसे ‘गुरुगीता’ का ग्रंथ दिया एवं अनुष्ठान-विधि बतायी । जैसे-तैसे समय निकालकर नागगंधा ने बड़े श्रद्धापूर्वक अनुष्ठान आरम्भ किया । कुछ ही दिनों में उसका प्रभाव भी दिखने लगा । जैसा कि कहा गया है :
असिद्धं साधयेत्कार्य नवग्रहभवापहम।…
‘इस गुरुगीता का पाठ असाध्य कार्य की सिद्धि कराता है, नव ग्रहों का भय हरता है ।’
नागगंधा के मन में शांति और आनंद छाने लगे, मानो उसके पूर्वकृत कर्म एवं ग्रहजन्य दोष पाठ के प्रभाव से नष्ट हो रहे हों । श्री गुरुगीता में भगवान शिव कहते हैं :
शिवपूजारतो वापि विष्णुपूजारतोऽथवा ।
गुरुतत्त्विहीनश्चेत्त्सर्वं व्यर्थमेव हि ।।
‘कोई शिवजी की पूजा में रत हो या विष्णुजी की पूजा में रत हो परंतु गुरु-तत्त्व के ज्ञान से रहित हो तो उसका वह सब व्यर्थ है ।’
सर्व स्यात्सफलं कर्म गुरुदीक्षाप्रभावतः ।
गुरुलाभात्सर्वलाभो गुरुहीनस्तु यालिशः ।।
गुरुदेव की दीक्षा के प्रभाव से सब कर्म सफल होते हैं । गुरुदेव की सम्प्राप्तिरूपी परम लाभ से अन्य सर्व लाभ मिलते हैं । जिसका गुरु नहीं है वह मूर्ख है ।
भगवान के इन वचनों ने नागगंधा के मन में सद्गुरु प्राप्ति की तड़प जगा दी । उसके मन यही चाह थी कि ‘गुरुगीता में बताये अनुसार मुझे परम गुरु ‘सद्गुरु’ से ही दीक्षा लेनी है ।’
एक बार स्वप्न में नागगंधा को एक महापुरुष के दर्शन हुए और उसकी आँखें सहसा खुल गयीं । उसने देखा कि वे ही महापुरुष उसके सामने खड़े हैं ! वह तो भावविभोर हो गयी । उन महापुरुष ने नागगंधा को मंत्रदीक्षा दी, साधना की विधि आदि बतायी और अदृश्य हो गये ।
गुरुमंत्र-जप, गुरु का ध्यान व गुरु-उपदिष्ट अन्य साधन-भजन करते हुए नागगंधा अंतर्मुख होती गयी । गुरुकृपा से वह संसार के समस्त बंधनों से मुक्त हो गयी । आगे चलकर वह ‘महायोगिनी नागगंधा’ के नाम से प्रसिद्ध है ।
महायोगिनी नागगंधा सद्गुरु के ज्ञानामृत को समाज में बाँटने लगीं । वे कहती थीं : “गुरु को मन से पुकारो, वे सर्वसमर्थ अपने शिष्य को अनायास ही सब कुछ दे देते हैं ।”