आत्मविद्या की धनीः फुलीबाई
यह जोधपुर (राजस्थान) के पास के गाँव की महान नारी फुलीबाई की गाथा है । कहते हैं कि उनके पति शादी के थोड़े समय बाद ही स्वर्ग सिधार गये थे । उनके माता-पिता ने कहाः
“तेरा सच्चा पति तो परमात्मा ही है, बेटी ! चल, तुझे गुरुदेव के पास से दीक्षा दिलवा दें ।”
उनके समझदार माता-पिता ने समर्थ गुरु महात्मा भूरीबाई से उन्हें दीक्षा दिलवा दी । अब फुलीबाई अपने गुरुदेव की आज्ञा के अनुसार साधना में लीन हो गयी । प्राणायाम, जप और ध्यान आदि करते-करते उनकी बुद्धिशक्ति विकसित होने लगी । वे इस बात को खूब अच्छे से समझने लगी कि प्राणीमात्र के परम हितैषी, सच्चे स्वामी तो एकमात्र परमात्मा ही हैं । धीरे-धीरे परमात्मा के रंग में अपने जीवन को रेंगते-रेंगते, प्रेमाभक्ति से अपने हृदय को भरते-भरते वे सुषुप्त शक्तियों को जागृत करने में सफल हो गयीं ।
लौकिक विद्या में अनपढ़ वे फुलीबाई अलौकिक विद्या पाने में सफल हो गयीं । अब वे निराधार न रहीं बल्कि सर्वाधार के स्नेह से परिपूर्ण हो गयीं । उनके चित्त में नयी दिव्य स्फुरणाएँ स्फुरित होने लगीं । उनका जीवन परमात्म-प्रकाश से जगमगाने लगा । ऐहिक रूप से फुलीबाई बहुत गरीब थी किंतु उन्होंने वास्तविक धन को पा लिया था ।
गोबर के कण्डे बना-बनाकर वे अपनी आजीविका चलाती थीं किंतु उनकी पड़ोसन उनके कण्डे चुरा लेती । एक बार फुलीबाई को उस स्त्री पर दया आयी एवं बोलीः
“बहन ! यदि तू चोरी करेगी तो तेरा मन अपवित्र होगा और भगवान तुझसे नाराज हो जायेंगे । अगर तुझे चाहिए तो मैं तुझे पाँच-पचीस कण्डे दे दिया करूँगी किंतु तू चोरी करके अपना, मन, एवं बुद्धि का एवं अपने कुटुम्ब का सत्यानाश मत कर ।”
वह पड़ोसन स्त्री तो दुष्टा थी । वह तो फुलीबाई को गालियों पर गालियाँ देने लगी । इससे फुलीबाई के चित्त में जरा भी क्षोभ न हुआ वरन् उनके चित्त मे दया उपजी और वे बोलीः
“बहन ! मैं तुझे जो कुछ कह रही हूँ, वह तुम्हारी भलाई के लिए ही कह रही हूँ । तुम झगड़ो मत ।”
चोरी करने वाली महिला को ज्यादा गुस्सा आ गया । फिर फुलीबाई ने भी थोड़ा-सा सुना दिया । झगड़ा बढ़ने लगा तो गाँव का मुखिया एवं ग्राम-पंचायत इकट्ठी हो गयी । सबसे एकत्रित देखकर वह चोरी करने वाली महिला बोलीः
“फुलीबाई चोर है, मेरे कण्डे चुरा जाती है ।”
फुलीबाईः “चोरी करने को मैं पाप समझती हूँ ।”
तब गाँव का मुखिया बोलाः “हम न्याय कैसे दें कि कण्डे किसके हैं ? कण्डों पर नाम तो किसी का नहीं लिखा और आकार भी एक जैसा है । अब कैसे बतायें कि कौन से कण्डे फुलीबाई के हैं एवं कौन से उसकी पड़ोसन के?”
जो स्त्री चोरी करती थी, उसका पति कमाता था फिर भी मलिन मन के कारण वह चोरी करती थी । ऐसी बात नहीं कि कोई गरीबी के कारण ही चोरी करता है । कई बार तो समझ गरीब होती है तब भी लोग चोरी करते हैं । फिर कोई कलम से चोरी करता है, कोई रिश्वत के रूप में चोरी करता है, कोई नेता बनकर जनता से चोरी करता है । समझ जब कमजोर होती है तभी मनुष्य हराम के पैसे लेकर विलासी जीवन जीने की इच्छा करता है और समझ ऊँची होती है तो मनुष्य ईमानदारी की कमाई से पवित्र जीवन जीता है । फिर भी वह भले सादा जीवन जिये लेकिन उसके विचार बहुत ऊँचे होते हैं ।
फुलीबाई का जीवन खूब सादगीपूर्ण था लेकिन उनकी भक्ति एवं समझ बहुत बढ़ गयी थी । उन्होंने कहाः “यह स्त्री मेरे कण्डे चुराती है इसका प्रमाण यह है कि यदि आप मेरे कण्डों को अपने कानों के पास रखेंगे तो उनमें से राम नाम की ध्वनि निकलेगी । जिन कण्डों में राम-नाम की ध्वनि निकले उन्हें आप मेरे समझना और जिनमें से न निकले उन्हें इसके समझना ।”
ग्राम-पंचायत के कुछ सज्जन लोग एवं मुखिया उस महिला के यहाँ गये । उसके कण्डों के ढेर में से एक-एक कण्डा उठाकर कान के पास रखकर देखने लगे । जिस कण्डे में से राम नाम की ध्वनि का अनुभव होता तो उसे अलग रख देते । ऐसे लगभग 50 कण्डे निकले ।
मंत्रजप करते-करते फुलीबाई की रगों में नस-नाड़ियों में एवं पूरे शरीर में मंत्र का प्रभाव छा गया था । वे जिन वस्तुओं को छूतीं, उनमें भी मंत्र की सूक्ष्म तरंगों का संचार हो जाता था । गाँव के मुखिया एवं उन सज्जनों को फुलीबाई का यह चमत्कार देखकर उनके प्रति आदर भाव हो आया । उन लोगों ने फुलीबाई का सत्कार किया ।
मनुष्य में कितनी शक्ति है ! कितना सामर्थ्य है ! उसे यदि योग्य मार्गदर्शन मिल जाये एवं वह तत्परता से लग जाये तो क्या नहीं कर सकता?
फुलीबाई ने गुरुमंत्र प्राप्त करके गुरु के निर्देशानुसार साधना की तो उनमें इतनी शक्ति आ गयी कि उनके द्वारा बनाये गये कण्डों से भी राम नाम की ध्वनि निकलने लगी ।
एक दिन राजा यशवंतसिंह के सैनिकों की एक टुकड़ी दौड़ने के लिए निकली । उसमें से एक सैनिक फुलीबाई की झोपड़ी में पहुँचा एवं उनसे पानी माँगा ।
फुलीबाई ने कहाः “बेटा ! दौड़कर तुरंत पानी नहीं पीना चाहिए । इससे तंदरुस्ती बिगड़ती है एवं आगे जाकर खूब हानि होती । दौड़ लगाकर आये हो तो थोड़ी देर बैठो । मैं तुम्हें रोटी का टुकड़ा देती हूँ, उसे खाकर फिर पानी पीना ।”
सैनिकः “माताजी ! हमारी पूरी टुकड़ी दौड़ती आ रही है । यदि मैं खाऊँगा तो मुझे मेरे साथियों को भी खिलाना पड़ेगा ।”
फुलीबाईः “मैंने दो रोटले बनाये हैं गुवारफली की सब्जी है । तुम सब लोग टुकड़ा-टुकड़ा खा लेना ।”
सैनिकः “पूरी टुकड़ी केवल दो रोटले में से टुकड़ा-टुकड़ा कैसे खा पायेगी?”
फुलीबाईः “तुम चिंता मत करो । मेरे राम मेरे साथ हैं ।”
फुलीबाई ने दो रोटले एवं सब्जी को ढँक दिया । कुल्ले करके आँख-कान को पानी का स्पर्श कराया । ‘हम जो देखें पवित्र देखें, हम जो सुनें पवित्र सुनें….’ ऐसा संकल्प करके आँख-कान को जल का स्पर्श करवाया जाता है ।
फुलीबाई ने सब्जी-रोटी को कपड़े से ढँककर भगवत्स्मरण किया एवं इष्टमंत्र में तल्लीन होते-होते टुकड़ी के सैनिकों को रोटले का टुकड़ा एवं सब्जी देती गयीं । फुलीबाई के हाथों से बने उस भोजन में दिव्यता आ गयी थी । उसे खाकर पूरी टुकड़ी बड़ी प्रसन्न एवं संतुष्ट हुई । उन्हें आज तक ऐसा भोजन नहीं मिला था । उन सभी ने फुलीबाई को प्रणाम किया एवं वे विचार करने लगे कि इतने-से झोंपड़े में इतना सारा भोजन कहाँ से आया !
सबसे पहले जो सैनिक पहले जो सैनिक पहुँचा था उसे पता था कि फुलीबाई ने केवल दो रोटले एवं थोड़ी सी सब्जी बनायी है किंतु उन्होंने जिस बर्तन में भोजन रखा है वह बर्तन उनकी भक्ति के प्रभाव से अक्षयपात्र बन गया है ।
यह बात राजा यशवंतसिंह के कानों तक पहुँची । वह रथ लेकर फुलीबाई के दर्शन करने के लिए आया । उसने रथ को दूर ही खड़ा रखा, जूते उतारे, मुकुट उतारा एवं एक साधारण नागरिक की तरह फुलीबाई के द्वार तक पहुँचा । फुलीबाई की तो एक छोटी-सी झोंपड़ी है और आज उसमें जोधपुर का सम्राट खूब नम्र भाव से खड़ा है ! भक्ति की क्या महिमा है ! परमात्मज्ञान की क्या महिमा है कि जिसके आगे बड़े-बड़े सम्राट तक नतमस्तक हो जाते हैं !
यशवंतसिंह ने फुलीबाई के चरणों में प्रणाम किया । थोड़ी देर बातचीत की, सत्संग सुना । फुलीबाई ने अपने अनुभव की बातें बड़ी निर्भीकता से राजा यशवंतसिंह को सुनायीं-
“बेटा यशवंत ! तू बाहर का राज्य तो कर रहा है लेकिन अब भीतर का राज्य भी पा ले । तेरे अंदर ही आत्मा है, परमात्मा है । वही असली राज्य है । उसका ज्ञान पाकर तू असली सुख पा ले । कब तक बाहर के विषय-विकारों के सुख में अपने को गरक करता रहेगा? हे यशवंत ! तू यशस्वी हो । अच्छे कार्य कर और उन्हें भी ईश्वरार्पण कर दे । ईश्वरार्पण बुद्धि से किया गया कार्य भक्ति हो जाता है । राग-द्वेष से प्रेरित कर्म जीव को बंधन में डालता है किंतु तटस्थ होकर किया गया कर्म जीव को मुक्ति के पथ पर ले जाता है ।
हे यशवंत ! तेरे खजाने में जो धन है वह तेरा नहीं है, वह तो प्रजा के पसीने की कमाई है । उस धन को जो राजा अपने विषय-विलास में खर्च कर देता है, उसे रौरव नरक के दुःख भोगने पड़ते हैं, कुंभीपाक जैसे नरकों में जाना पड़ता है । जो राजा प्रजा के धन का उपयोग प्रजा के हित में, प्रजा के स्वास्थ्य के लिए, प्रजा के विकास के लिए करता है वह राजा यहाँ भी यश पाता है और उसे स्वर्ग की भी प्राप्ति होती है । हे यशवंत ! यदि वह राजा भगवान की भक्ति करे, संतों का संग करे तो भगवान के लोक को भी पा लेता है और यदि वह भगवान के लोक को पाने की भी इच्छा न करे वरन् भगवान को ही जानने की इच्छा करे तो वह भगवत्स्वरूप का ज्ञान पाकर भगवत्स्वरूप, ब्रह्मस्वरूप हो जाता है ।”
फुलीबाई की अनुभवयुक्त वाणी सुनकर यशवंतसिंह पुलकित हो उठा । उसने अत्यंत श्रद्धा-भक्ति से फुलीबाई के चरणों में प्रणाम किया । फुलीबाई की वाणी में सच्चाई थी, सहजता थी और ब्रह्मज्ञान का तेज था, जिसे सुनकर यशवंतसिंह भी नतमस्तक हो गया ।
कहाँ तो जोधपुर का सम्राट और कहाँ लौकिक दृष्टि से अनपढ़ फुलीबाई ! किंतु उन्होंने यशवंतसिंह को ज्ञान दिया । यह ब्रह्मज्ञान है ही ऐसा कि जिसके सामने लौकिक विद्या का कोई मूल्य नहीं होता ।
यशवंतसिंह का हृदय पिघल गया । वह विचार करने लगा कि ‘फुलीबाई के पास खाने के लिए विशेष भोजन नहीं है, रहने के लिए अच्छा मकान नहीं है, विषय-भोग की कोई सामग्री नहीं है फिर भी वे संतुष्ट रहती है और मेरे जैसे राजा को भी उनके पास आकर शांति मिलती है । सचमुच, वास्तविक सुख तो भगवान की भक्ति में एवं भगवत्प्राप्त महापुरुषों के श्रीचरणों में ही है, बाकी को संसार में जल-जलकर मरना ही है । वस्तुओं को भोग-भोगकर मनुष्य जल्दी कमजोर एवं बीमार हो जाता है, जबकि फुलीबाई कितनी मजबूत दिख रही हैं !’
यह सोचते-सोचते यशवंतसिंह के मन में एक पवित्र विचार आया कि ‘मेरे रनिवास में तो कई रानियाँ रहती हैं परंतु जब देखो तब बीमार रहती हैं, झगड़ती रहती हैं, एक दूसरे की चुगली और एक-दूसरे से ईर्ष्या करती रहती हैं । यदि उन्हें फुलीबाई जैसी महान आत्मा का संग मिले तो उनका भी कल्याण हो ।’
यशवंतसिंह ने हाथ जोड़कर फुलीबाई से कहाः
“माताजी ! मुझे एक भिक्षा दीजिए ।”
सम्राट एक निर्धन के पास भीख माँगता है ! सच्चा सम्राट तो वही है जिसने आत्मराज्य पा लिया है । बाह्य साम्राज्य को प्राप्त किया हुआ मनुष्य तो अध्यात्ममार्ग की दृष्टि से कंगाल भी हो सकता है । आत्मराज्य को पायी हुईं निर्धन फुलीबाई से राजा एक भिखारी की तरह भीख माँग रहा है ।
यशवंतसिंह बोलाः “माता जी ! मुझे एक भिक्षा दें ।”
फुलीबाईः “राजन ! तुम्हें क्या चाहिए?”
यशवंतसिंहः “बस, माँ ! मुझे भक्ति की भिक्षा चाहिए । मेरी बुद्धि सन्मार्ग में लगी रहे एवं संतों का संग मिलता रहे ।”
फुलीबाई ने उस बुद्धिमान, पवित्रात्मा यशवंतसिंह के सिर पर हाथ रखा । फुलीबाई का स्पर्श पाकर राजा गदगद हो गया एवं प्रार्थना करने लगाः “माँ ! इस बालक की एक दूसरी इच्छा भी पूरी करें । आप मेरे रनिवास में पधारकर मेरी रानियों को थोड़ा उपदेश देने की कृपा करें, ताकि उनकी बुद्धि भी अध्यात्म में लग जाय ।”
फुलीबाई ने यशवंतसिंह की विनम्रता देखकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । नहीं तो, उन्हें रनिवास से क्या काम ?
ये वे ही फुलीबाई हैं जिनके पति विवाह होते ही स्वर्ग सिधार गये थे । दूसरी कोई स्त्री होती तो रोती कि ‘अब मेरा क्या होगा? मैं तो विधवा हो गयी…’ परंतु फुलीबाई के माता-पिता ने उन्हें भगवान के रास्ते लगा दिया । गुरु से दीक्षा लेकर गुरु के बताये हुए मार्ग पर चलकर अब फुलीबाई ‘फुलीबाई’ न रहीं बल्कि ‘संत फुलीबाई’ हो गयीं तो यशवंतसिंह जैसा सम्राट भी उनका आदर करता है एवं उनकी चरणरज सिर पर लगाकर अपने को भाग्यशाली मानता है, ‘उन्हें माता’ कहकर संबोधित करता है । जो कण्डे बेचकर अपना जीवन निर्वाह करती हैं उन्हें हजारों लोग ‘माता’ कहकर पुकारते हैं ।
धन्य है वह धरती जहाँ ऐसे भगवदभक्त जन्म लेते हैं ! जो भगवान का भजन करके भगवान के हो जाते हैं । उन्हें ‘माता’ कहने वाले हजारों लोग मिल जाते हैं, अपना मित्र एवं सम्बन्धी मानने के लिए हजारों लोग तैयार हो जाते हैं क्योंकि उन्होंने सच्चे माता-पिता के साथ, सच्चे सगे-सम्बन्धी के साथ, परमात्मा के साथ अपना चित्त जोड़ लिया है ।
यशवंतसिंह ने फुलीबाई को राजमहल में बुलवाकर दासियों से कहाः “इन्हें खूब आदर के साथ रनिवास में जाओ ताकि रानियाँ इनके दो वचन सुनकर अपने कान को एवं दर्शन करके अपने नेत्रों को पवित्र करें ।”
फुलीबाई के वस्त्रों पर तो कई पैबंद लगे हुए थे । पैबंदवाले कपड़े पहनने के बावजूद, बाजरी के मोटे रोटले खाने एवं झोंपड़े में रहने के बावजूद फुलीबाई कितनी तंदरुस्त और प्रसन्न थी और यशवंत सिंह की रानियाँ ? प्रतिदिन नये-नये व्यंजन खाती थीं, नये-नये वस्त्र पहनती थीं, महलों में रहती थीं फिर भी लड़ती-झगड़ती रहती थीं । उनमें थोड़ी आये इसी आशा से राजा ने फुलीबाई को रनिवास में भेजा ।
दासियाँ फुलीबाई को आदर के साथ रनिवास में ले गयीं । वहाँ तो रानियाँ सज-धजकर, हार-श्रृंगार करके, तैयार होकर बैठी थी । जब उन्होंने पैबंद लगे मोटे वस्त्र पहनी हुई फुलीबाई को देखा तो एक दूसरे की तरफ देखने लगीं और फुसफुसाने लगीं कि यह कौन सा प्राणी आया है?”
फुलीबाई का अनादर हुआ किंतु फुलीबाई के चित्त पर चोट न लगी क्योंकि जिसने अपना आदर कर लिया, अपनी आत्मा का आदर कर लिया, उसका अनादर करके उसको चोट पहुँचाने में दुनिया का कोई भी व्यक्ति सफल नहीं हो सकता । फुलीबाई को दुःख न हुआ, ग्लानि न हुई, क्रोध नहीं आया वरन् उनके चित्त मे दया उपजी कि इन मूर्ख रानियों को थोड़ा उपदेश देना चाहिए । दयालु एवं समचित्त फुलीबाई ने उन रानियों कहाः “बेटा ! बैठो ।”
दासियों ने धीरे-से जाकर रानियों को बताया कि राजा साहब तो इन्हें प्रणाम करते हैं, इनका आदर करते हैं और आप लोग कहती हैं कि “कौन सा प्राणी आया?” राजा साहब को पता चलेगा तो आपकी….”
यह सुनकर रानियाँ घबरायीं एवं चुपचाप बैठ गयीं ।
फुलीबाई ने कहाः “हे रानियो ! इस हाड़-मांस के शरीर को सजाकर क्या बैठी हो? गहने पहनकर, हार-श्रृंगार करके केवल शरीर को ही सजाती रहोगी तो उससे तो पति के मन में विकार उठेगा । जो तुम्हें देखेगा उसके मन में विकार उठेगा । इससे उसे तो नुकसान होगा ही, तुम्हें भी नुकसान होगा ।”
शास्त्रों में श्रृंगार करने की मनाही नहीं है परंतु सात्त्विक पवित्र एवं मर्यादित श्रृंगार करो । जैसा श्रृंगार प्राचीन काल में होता था, वैसा करो । पहले वनस्पतियों से श्रृंगार के ऐसे साधन बनाये जाते थे जिनसे मन प्रफुल्लित एवं पवित्र रहता था, तन नीरोग रहता था । जैसे कि पैर में पायल पहनने से अमुक नाड़ी पर दबाव रहता है एवं उससे ब्रह्मचर्य-रक्षा में मदद मिलती है । जैसे ब्राह्मण लोग जनेऊ पहनते हैं एवं पेशाब करते समय कान पर जनेऊ लपेटते हैं तो उस नाड़ी पर दबाव पड़ने से उन्हें ‘कर्ण पीडनासन’ का लाभ मिलता है और स्वप्नदोष की बीमारी नहीं होती । इस प्रकार शरीर को मजबूत और मन को प्रसन्न बनाने में सहायक ऐसी हमारी वैदिक संस्कृति है ।
आजकल तो पाश्चात्य जगत के ऐसे गंदे श्रृंगारो का प्रचार बढ़ गया है कि शरीर तो रोगी हो जाता है, साथ ही मन भी विकारग्रस्त हो जाता है । श्रृंगार करने वाली जिस दिन श्रृंगार नहीं करती उस दिन उसका चेहरा बूढ़ी बंदरी जैसा दिखता है । चेहरे की कुदरती कोमलता नष्ट हो जाती है । पाउडर, लिपस्टिक वगैरह से त्वचा की प्राकृतिक स्निग्धता नष्ट हो जाती है ।
प्राकृतिक सौन्दर्य को नष्ट करके जो कृत्रिम सौन्दर्य के गुलाम बनते हैं, उनसे प्रार्थना है कि वे कृत्रिम प्रसाधनों का प्रयोग करके अपने प्राकृतिक सौन्दर्य को नष्ट न करें । चूड़ियाँ पहनने की, कुमकुम का तिलक करने की मनाई नहीं है, परंतु पफ-पाउडर, लाली लिपस्टिक लगाकर, चमकीले-भड़कीले वस्त्र पहनकर अपने शरीर, मन, कुटुम्बियों एवं समाज का अहित न हो, ऐसी कृपा करें । अपने असली सौन्दर्य को प्रकट करें । जैसे मीरा ने किया था, गार्गी और मदालसा ने किया था ।
फुलीबाई ने उन रानियों को कहाः “हे रानियो ! तुम इधर-उधर क्या देखती हो? ये गहने-गाँठें तो तुम्हारे शरीर की शोभा हैं और यह शरीर एक दिन मिट्टी में मिल जाने वाला है । इसे सजा-धजाकर कब तक अपने जीवन को नष्ट करती रहेगी? विषय विकारों में कब तक खपती रहोगी? अब तो श्रीराम का भजन कर लो । अपने वास्तविक सौन्दर्य को प्रकट कर लो ।
गहनो गाँठो तन री शोभो, काया काचो भाँडो ।
‘फुली‘ कहे थे राम भजो नित, लड़ो क्यों हो राँडो?
‘गहने-गाँठे शरीर की शोभा हैं और शरीर मिट्टी के कच्चे बर्तन जैसा है । अतः प्रतिदिन राम का भजन करो । इस तरह व्यर्थ लड़ने से क्या लाभ?’
विषय-विकार की गुलामी छोड़ो, हार श्रृंगार की गुलामी छोड़ो एवं पा लो उस परमेश्वर को, जो परम सुन्दर है ।”
राजा यशवंतसिंह के रनिवास में भी फुलीबाई की कितनी हिम्मत है ! रानियों को सत्य सुनाकर फुलीबाई अपने गाँव की तरफ चल पड़ीं ।
बाहर से भले कोई अनपढ़ दिखे, निर्धन दिखे परंतु जिसने अंदर का राज्य पा लिया है वह धनवानों को भी दान देने की क्षमता रखता है और विद्वानों को भी अध्यात्म-विद्या प्रदान कर सकता है । उसके थोड़े-से आशीर्वाद मात्र से धनवानों के धन की रक्षा हो जाती है, विद्वानों में आध्यात्मिक विद्या प्रकट होने लगती है । आत्मविद्या में, आत्मज्ञान में ऐसा अनुपम-अदभुत सामर्थ्य है और इसी सामर्थ्य से संपन्न थीं फुलीबाई ।