वीरांगना हाडी रानी
चितौड़ के सिंहासन पर राणा राजसिंह आसीन थे । बादशाह औरगंजेब ने रूपनगढ़ की राजकन्या से विवाह करना चाहा । राजकुमारी रूपवती चितौड़ के राणा के पास पत्र भेजा कि ‘क्या राजसिंह सिसोदिया कुलभूषण के जीते जी राजहंसिनी का गिद्ध से विवाह होगा ? ‘ राणा सहायता के लिए वचनवद्ध हो गये और शूरवीर सरदार चूड़ावत के यह कहने पर कि जब तक आप राठौर कन्या का पाणिग्रहण कर उदयपुर लौट ना आएंगे , मैं शाही सेना को मार्ग में ही रोककर रखूँगा । वे एक सुसज्जित सेना लेकर रूपनगढ़ की ओर चल पड़े । सरदार चूड़ावत अपनी राजधानी में युद्ध का डंका बजा दिया, क्षत्रिय मरने-मारने को तैयार हो गए । राणा के लिए प्रयाण करते समये सरदार ने अपने नव-विवाहिता यौवनान्मादिनी रानी को देखा , उसका मुख फीका पड़ वह ना आगे बढ़ सका ना पीछे ही आ सका। अपने पति की यह शिथिलता देखकर सरदार से उदासी का कारण पूछा सरदार ने सारी बातें बतला दी और कहा कि मुझे मरने से कुछ भी भय नहीं, वीर तो रण में मरते ही है, मुझे चिंता केवल इस बात की है कि तुमने विवाह का कुछ भी सुख नहीं देखा । रानी ने सिंहनी की तरह कड़ककर कहा कि प्राणनाथ की आप मेरी चिंता छोड़ दे । राजपूतनी सतीत्व और पतिव्रत धर्म का मूल्य जानती है । यदि आप रणक्षेत्र में विजय पाएंगे तो इससे बढ़कर मेरे लिए कौन-सा सुख होगा पर मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि यदि आप रणक्षेत्र में दिव्यलोक को प्रयाण कर जायेंगे तो मैं सती होकर वहाँ पर भी आपको दाम्पत्य सुख से संतुष्ट करूँगी इस कथन में कुछ भी संदेह नहीं करना चाहिए ।
सरदार को विश्वास ना हो सका कि उसके मरने के बाद उसकी तरुण रानी सती होंगी ; इसलिए विदा लेते समय उसने फिर सावधान किया कि मेरे मरने के बाद तुम अपना धर्म मत भूल जाना राजधानी में जब दौसा बजने लगा तो उसने विश्वासपात्र सेवक से उसके पास फिर उसी तरह का संदेश भेजें क्योंकि उसे भय था कि स्वर्ग में वह कहीं दांपत्य सुख से वंचित न रह जाए हाडी रानी को अब यह डर हो गया कि कहीं ऐसा ना हो कि सरदार मेरे ही कारण युद्ध से विमुख हो जाएं या रण से कायर की तरह भाग खड़े हो उस सती ने अपना सिर काटकर सेवक के हाथ में रख दिया सिर काटने से पहले उसने कहा था कि पतिदेव से कह देना, मैं पहले ही सती होकर देवलोक की यात्रा कर रही हूँ; और आपके प्रेम के चिन्हस्वरूप यह भेंट भेज रही हूँ; इसे लेकर आप रणभूमि पधारे और विजय प्राप्त करके यशलाभ करे। देवलोक में हम दोना का पुनः सम्मिलन होगा ।’ वीर चुँडावत ने रानीहाड़ी का सिर देख के आनन्दित हो उठा और दुगने उत्साह के साथ युद्ध करने लगा। हाड़ी रानी का आत्मबलिदान सर्वथा स्तुत्य है । इतिहास में ऐसी ही देवियों के नाम स्वर्णाक्षरों में लिखे जाते हैं ।