कैसी हो शिक्षा ?
– श्री एन. चंद्रशेखर अय्यर, पूर्व न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय
जिस प्रणाली से हमारे बालक बढ़ रहे हैं उसमें कोई मूलतः दोष अवश्य है । मेरी दृष्टि से प्रारम्भिक पाठशालाओं में भी कुछ समय अपनी (हिन्दू) संस्कृति एवं अंतरात्मा के अनुकूल नैतिक मान्यताओं या सुक्तियों तथा सदाचरण के उज्ज्वल आदर्शों के प्रसार में लगाया जाना चाहिए । जीवन के महान सत्य एवं अपने धर्म को प्रदर्शित करनेवाली छोटी-छोटी कथाएँ पढ़ायी जानी चाहिए और इस कार्य के लिए हमारे इतिहास-पुराणों में अत्यधिक रोचक और हृदयग्राही उपदेशात्मक कथाएँ प्रचुर मात्रा में मिलती हैं ।
बच्चों को विद्यालयों तथा घर पर प्राचीन एवं अर्वाचीन (वर्तमान के) महापुरुषों के प्रति आदर- सम्मान की शिक्षा अनवरत देनी चाहिए । कुछ दशक पूर्व हमारी माताएँ, नानियाँ, दादियाँ और बड़ी बहनें हमारे श्रेष्ठ पूर्वपुरुषों की वीरगाथाएँ गाकर या यों ही सुनाना अपना कर्तव्य मानती थीं । आजकल अधिकांश माताएँ-बहनें पश्चिमी पद्धति के रहन-सहन के वशीभूत हो गयी हैं, जिसका परिणाम यह हुआ है कि बच्चों की शिक्षा का भार ऐसी आयाओं और शिक्षकों पर आ पड़ा है जो हिन्दू संस्कृति के सच्चे स्वरूप से एकदम अनभिज्ञ हैं ।
हमें किशोर-किशोरियों को यह शिक्षा देनी है ‘हमारा धर्म महान है और वह हमारे जीवन का मूल आधार है । तुम धर्म को इसी दृष्टि से देखो ।’ समस्त देश में इस शिक्षा का अभाव है, जिसके कारण बच्चे आध्यात्मिकता एवं अनादर के वातावरण में बढ़ रहे हैं और उनमें किसी ध्येय या सिद्धांत की दृढता नहीं है । यदि हम द्धेषियों तथा कुचक्रियों से गुमराह न होकर शुद्ध भाव से अपने धार्मिक ग्रंथों के इतिहास को पढ़ें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि हमें अपने अतीत पर गर्व करने का सर्वथा अधिकार है और इसी महान अतीत के बल पर ही हम उज्ज्वल भविष्य का निर्माण भी कर सकते हैं ।
ज्ञानमात्र प्राप्त कर लेना पर्याप्त नहीं है, हमारे बच्चों को ज्ञान के साधनों का साक्षात्कार (प्रत्यक्ष अनुभव) भी कराना आवश्यक है । विज्ञानमात्र पर्याप्त नहीं है, अविचल धार्मिक श्रद्धा भी अपेक्षित है । दूसरी सभ्यताओं के अंधानुकरण में हमने जो विदेशी वातावरण या परिसर अपने चारों ओर बना लिया है उसे हटाना या बदलना होगा और हमें अपनी मूल धरती को फिर से पाना होगा ।