यौवन, धन और स्वास्थ्य का सदुपयोग
यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता ।
एकैकमप्यनर्थाय किम् यत्र चतुष्टकम् ।।
अर्थ : यौवन, धन-सम्पत्ति, सत्ता और अविचार इनमें से एक भी अनर्थ का कारण हो सकता है, फिर जहाँ ये चारों हों वहाँ क्या होगा ?
अर्थ-अनर्थकारी तीन वस्तुएँ
धन, यौवन और सत्ता – ये तीन वस्तुएँ बड़ी अनर्थकारी हैं और ये ही तीन वस्तुएँ सदुपयोग करने पर बड़ी सुखदायी भी हैं ।
आप धन का सदुपयोग करके अपने भी आँसू पोंछ सकते हो और कुटुम्ब या पड़ोस के लोगों के भी अथवा हजारों-लाखों दीन-दुखियों, त्रासितों, सज्जनों के भी आँसू पोंछ सकते हो ।
सेवा का सही अर्थ क्या है ? जिनके साथ आपका परिचय है उनसे ममता न रखना और जिनके साथ आपका कोई परिचय या संबंध नहीं है, जिनसे फायदे की कोई अपेक्षा नहीं है, उनको अपना समझकर उनकी सेवा करना – यह कर्मयोग है, सच्ची सेवा है । ऐसा करने से हृदय शुद्ध होने लगता है, आत्मज्ञान की योग्यता छलकने लगती है ।
यौवन काम, क्रोध, मद, मोह से आक्रांत होता है किंतु अगर यौवन का सदुपयोग किया जाय तो इसी यौवनावस्था में तत्त्वज्ञान समझने, योग-साधना करने तथा कई ऊँचाइयों को छूने की क्षमता भी छुपी हुई है ।
ऐसे ही अगर सत्ता का सदुपयोग किया जाय तो उसके द्वारा कई सद्गुणों का प्रचार-प्रसार हो सकता है, कई सद्गुणी व्यक्तियों को प्रोत्साहित किया जा सकता है । किंतु अगर सत्ता का उपयोग अहं को पोसने में किया जाय तो कई अनर्थकारी स्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं ।
धन, यौवन व सत्ता – ये तीन चीजें किस प्रकार शत्रु का काम करती हैं और किस प्रकार मित्र का – यह समझ में आ जाय तो इनसे हम परम मित्र का काम ले सकते हैं, ये हमें सत्य से मिला देंगी ।
अगर यौवन में व्यक्ति कामविकार और भोगों में पड़ा रहा तो उसका भविष्य अंधकारमय हो जायेगा । वह पशुवत् हो जायेगा । अगर यौवन का उपयोग संयम-सदाचार से युक्त होकर साधना में किया, समाज की सेवा में किया तो वह देर-सवेर सत्यस्वरूप परमात्मा की स्मृति दिलाकर जीवात्मा को परमात्मा से मिला देगा । ध्रुव, प्रह्लाद, शबरी, मीरा ने अपने यौवन का सदुपयोग किया तो वे महान हो गये ।
बुद्धि के साथ ऐक्य करके भगवान के विषय में सोचो तो यह हो गया बुद्धियोग । मन के साथ ऐक्य करके भगवान के साकार स्वरूप का चिंतन और उससे प्रीति करो तो यह हो गया भक्तियोग । ‘शरीर संसार का हिस्सा है, इसको चलाने के लिए व्यष्टि और समष्टि की सत्ताएँ हैं, मैं बीच में कुछ नहीं’ – ऐसा समझकर संसार और इन्द्रियों के साथ एकता करके जो कार्य किया जाता है वह हो जाता है कर्मयोग । संसार बदलता जाता है, शरीर भी बदलता जाता है, इन्द्रियाँ भी बदलती जाती हैं, मन भी बदलता जाता है, बुद्धि भी बदलती जाती है । जो बचपन की बुद्धि थी वह स्कूल-कॉलेज के समय नहीं रही और स्कूल-कॉलेजवाली बुद्धि भी बाद में बदल गयी, मन भी बदल गया, तन भी बदल गया लेकिन इन सबकी बदलाहटों को देखनेवाला कोई ऐसा तत्त्व है जो अभी भी नहीं बदला; वही आत्मा है, वही है अबदल परमात्मा । उसीको पाने के लिए धन, यौवन और सत्ता का उपयोग करना इनका सदुपयोग है और जो बदलता जा रहा है उसीकी लोलुपता में इनका उपयोग करना इनका दुरुपयोग है । …तो जैसे परमात्मा नहीं बदलता वैसे आत्मा भी नहीं बदलता । इस प्रकार आत्मा-परमात्मा की एकता सिद्ध हो जाती है ।
शरीर संसार का हिस्सा है अतः उसको संसार की सेवा में लगा दो और आत्मा को परमात्मरूप मान लो तो हो जाय बेड़ा पार…