युवावस्था - एक अमूल्य निधि
– महात्मा गांधी
मेरी आशा देश के युवक-युवतियों से है । उन्हें ईश्वर की खोज करनी चाहिए और प्रलोभनों से बचने के लिए उसकी मदद माँगनी चाहिए । उसके बिना यंत्र की तरह केवल अनुशासन का पालन करने से विशेष लाभ नहीं होगा ।
युवक-युवतियाँ तो सर्वत्र भावना में बह जानेवाले होते हैं इसलिए उन्हें अध्ययनकाल में यानि कम-से-कम २५ वर्ष की आयु तक प्रतिज्ञापूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करने की आवश्यकता है ।
युवावस्था की निर्दोष पवित्रता एक अमूल्य निधि है । इन्द्रियों की क्षणिक तृप्ति, जिसे भूल से सुख का नाम दिया जाता है, के लिए इस अमूल्य निधि को खोना नहीं चाहिए ।
नैतिक अपवित्रता की विषैली हवा आज हमारे विद्यार्थियों में भी जा पहुँची है और किसी छिपी हुई महामारी की तरह उनकी भयंकर बर्बादी कर रही है । इसलिए मैं युवक-युवतियों से अनुरोध करता हूँ कि तुम अपने मन और शरीर को पवित्र रखो । तुम्हारा सारा पांडित्य (विद्वत्ता) और शास्त्रों का अध्ययन बिल्कुल बेकार होगा, यदि तुम उनकी शिक्षाओं को अपने दैनिक जीवन में न उतार सको ।
कुछ शिक्षक भी ऐसे होते हैं जो पवित्र और स्वच्छ जीवन नहीं बिताते । वे अपने छात्र-छात्राओं को दुनिया का सारा ज्ञान सिखा दें परंतु यदि वे उनमें सत्य, ईश्वर और पवित्रता की लगन न पैदा करें तो यही कहना होगा कि उन्होंने अपने छात्रों से द्रोह किया है और उन्हें ऊपर उठाने के बजाय आत्मनाश के मार्ग की ओर प्रवृत्त किया है । सच्चरित्र के अभाव में ज्ञान (लौकिक ज्ञान) बुराई को ही बढ़ाने वाली शक्ति है ।