आत्मबल जगाओ
नारी शरीर मिलने से अपने को अबला मानती हो ? लघुताग्रन्थि में उलझकर परिस्थितियों में पीसी जाती हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठी हो ? तो अपने भीतर सुषुप्त आत्मबल को जगाओ । शरीर चाहे स्त्री का हो या पुरुष का । प्रकृति के साम्राज्य में जो जीते हैं, अपने मन के गुलाम होकर जो जीते हैं, वे सब स्त्री हैं और प्रकृति के बंधन से पार अपने आत्मस्वरूप की पहचान जिन्होंने कर ली, अपने मन की गुलामी की बेड़ियाँ तोड़कर जिन्होंने फेंक दी हैं वे पुरूष हैं । स्त्री या पुरुष शरीर एवं मान्यताएँ होती हैं, तुम तो शरीर से पार निर्मल आत्मा हो ।
जागो, उठो…. अपने भीतर सोए हुए आत्मबल को जगाओ । सर्वदेश, सर्वकाल में सर्वोत्तम आत्मबल को अर्जित करो । आत्मा-परमात्मा में अथाह सामर्थ्य है । अपने को दीन-हीन अबला मान बैठी तो जगत में ऐसी कोई सत्ता नहीं है जो तुम्हें ऊपर उठा सके । अपने आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो गई तो तीनों लोकों में भी ऐसी कोई हस्ती नहीं जो तुम्हें दबा सके ।
भौतिक जगत में भाप की शक्ति, विद्युत की शक्ति, गुरुत्वाकर्षण की शक्ति बड़ी मानी जाती है मगर आत्मबल उन सब शक्तियों का संचालक बल है । आत्मबल के सान्निध्य में आकर पंगु प्रारब्ध को पैर आ जाते हैं, दैव की दीनता पलायन हो जाती है, प्रतिकूल परिस्थितियाँ अनुकूल हो जाती हैं । आत्मबल सर्व सिद्धियों का पिता है ।