गृहस्थी का अमृत
ʹस्कन्द पुराणʹ में आया है कि गृहस्थ के घर नौ प्रकार का अमृत सदैव रहना चाहिए, इससे वह सुखी रहता है । ये सभी बिना पैसे के अमृत हैं ।
पहला – आपके घर कोई भी आ जाय तो उससे मीठे वचन बोलें ।
दूसरा – सौम्य दृष्टि से उसको निहारें । चाहे वह कितना भी बदमाश हो, क्रूर हो, कैसा भी हो परंतु आपके द्वार आया है, इस समय वह अतिथिदेव है । अतिथि में देवत्व देखोगे तो आपका देवत्व जाग्रत होगा ।
तीसरा – सौम्य मुख रखें । उसके साथ सौम्य-सुखद व्यवहार करें ।
चौथा – अतिथि के आने पर आप सौम्य मन बना लीजिये ।
पाँचवाँ – आप खड़े होकर उसके प्रति आदर का भाव व्यक्त करें । भले वह आपको गाली देता है, आपका कट्टर दुश्मन है किंतु आपने उसको मान दे दिया, खड़े होकर सम्मान दे दिया तो आधा तो आपने उसको जीत ही लिया और यदि आपने उसको चुभने वाली बात कह के या अपमानित कर के रवाना कर दिया तो आपने अपने लिए अपमान का द्वार चौड़ा कर दिया ।
छठा – स्वागत के दो मीठे वचन बोलिये और जलपान से उसका स्वागत कीजिये ।
सातवाँ – स्नेहपूर्वक वार्तालाप करें । जैसे –प्रेम से उसको पूछें कि कैसे आये ? आज तो बहुत कृपा हुई… आदि-आदि ।
आठवाँ – आप उसके पास थोड़ी देर बैठें ।
नौवाँ – उसको विदा करने के लिए उसके साथ चार कदम चल पड़ें ।
भले वह आदमी आपसो छोटा हो या बड़ा हो किंतु आपने इन नौ अमृतों का उपयोग किया तो आपका दिल बड़ा बनेगा और उसके दिल में आपका बड़प्पन बैठ जायेगा ।
आपने अपना फर्नीचर दिखाकर या धन-दौलत और हेकड़ी से उसको प्रभावित किया तो थोड़ी देर के लिए वह भले भौतिक वस्तुओं से प्रभावित हो जाये लेकिन आपका मित्र बनकर नहीं जायेगा, आपके लिए उसके दिल में कुछ-के-कुछ विचार उठेंगे । आप अपना ऐश्वर्य दिखाकर किसी को प्रभावित करने की गलती न करो । आप अपनी बात कहकर, उस पर प्रभाव जमा के उसको प्रभावित करो – यह बहुत छोटी बात है ।
लोग मिलने आते हैं तो अपनी सुनाने लग जाते हो किंतु लोग आपकी बात सुनने नहीं आते । आपका दुःख सुनने नहीं आते । वे अपना दुःख और अपनी बात सुनाने आते हैं । आपका अहंकार अपने पर थोपने नहीं आते अपितु अपनी इच्छा और अपनी आकांक्षाओं को तृप्त करने के लिए आपसे मिलते हैं । तो आप लोगों की तृप्ति के कारण बनिये । ऐसा नहीं कि लोगों के आगे आप अपनी हेकड़ी के कारण जाने जायें । मान योग्य कर्म करो पर हृदय में मान की इच्छा न रखो, आप अमानी रहो ।
ʹमहाभारतʹ में आता हैः ʹजो अमानी रहता है अर्थात् मान योग्य कर्म तो करता है पर मान की चाह नहीं रखता, वह सबका सम्माननीय हो जाता है ।ʹ