नारी में श्रद्धा-विश्वाश क्यों अधिक है ?
सूर्य स्थावर जंगम जगत की आत्मा है । सूर्य और चंद्र दोनों माया विशिष्ट ब्रह्म के नेत्र हैं । जिनके द्वारा ही जड़ चेतन जगत को जीवन मिलता है । स्त्री पार्थिव तत्व द्वारा इस जीवन को प्राप्त करती है और पुरुष अपने अनुतत्व द्वारा । सूर्य की लगभग एक हजार रश्मियाँ हैं, जिनके गुण और प्रभाव पृथक्-पृथक् हैं ।
पुरुष का तत्त्व सूर्य की पहली दूसरी किरण को अधिक आकर्षित करता है और स्त्री का तत्व सूर्य की तीसरी किरण को खिंचता है । सूर्य की तीसरी किरण में तमोगुण की अधिकता है । स्त्रियों के पार्थिव केंद्र में भी तमोगुण के अंश अधिक है क्योंकि वे माया की अधिष्ठात्री शक्ति हैं । तमोगुण का अधिष्ठान होने के कारण स्त्रियों में श्रद्धा-विश्वास की अधिकता होती है । या तो सत्वगुण में श्रद्धा-विश्वास की मात्रा अधिक होती है क्योंकि सत्तोगुणी जीव ज्ञानानुपूर्वी होते हैं, अथवा तमोगुणी जीवों में शंका-समाधान के लिए अवकाश नहीं रहता । स्त्रियों में तमोगुण की मात्रा अधिक होने के कारण उनमें श्रद्धा-विश्वास की भावना प्रबल होती है । इसलिए पुरुष की अपेक्षा सर्जरियों को बहकाना अथवा फुसलाना अधिक सरल माना जाता है । इसी श्रद्धा-विश्वास की भावनाओं के बल पर गोपियाँ एवं मीरा के प्रेम साधना ने चरम आध्यात्मिक उत्कर्ष साधा है तो दूसरी ओर नारी की इसी भावना का अनुचित लाभ उठाकर दुराचारियों ने, भोगियों ने, साहबों ने नारी को पथभ्रष्ट करके अपनी नारकीय वासनाओं की तृप्ति का साधन बनाया है । भोली-भाली नारियाँ कुपात्रों के प्रति असावधानी के कारण अपना सर्वस्व खो बैठती हैं । अतः भारतीय शास्त्रकारों ने नारी की निरंतर रक्षा करने का परामर्श दिया है । जब कन्या हो तो पिता द्वारा वह रक्षणीय है, विवाह होने पर पति द्वारा रक्षणीय है और वृद्धा होने पर पुत्र द्वारा रक्षणीय है ।
नारियों को उचित है कि वे अपनी इस प्रकृतिदत्त श्रद्धा-विश्वास रूपी संपत्ति को दुराचारी, पाखंडी धूर्तो से बचाये । नौकरी, आफिस में प्रमोशन के प्रलोभन में आकर काम-विकार की शिकार न बने । अपने श्रद्धा-विश्वास को सच्चे आध्यात्मिक क्षेत्र में लगाकर अपने जीवन को धन्यधन्य, कृतकृत्य बनायें ।