गृहस्थाश्रम में सफलता
ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास – इन सब आश्रमों का आधार गृहस्थाश्रम ही है ।
गृहस्थ जीवन का मुख्य उद्देश्य है अपनी वासनाओं पर संयम रखना, एक-दूसरे की वासना को नियंत्रित कर त्याग और प्रेम उभारना तथा परस्पर जीवनसाथी बनकर एक दूसरे के जीवन को उन्नत करना ।
कामनापूर्ति में फँसकर मनुष्य का जीवन निकम्मा न हो जाय, बल्कि कामनापूर्ति की सीमा रहे इसलिए सनातन धर्म में शादी की व्यवस्था है । पति-पत्नी एक दूसरे की रक्षा करें, एक दूसरे के जीवन में निखार लाने की चेष्टा करें, एक दूसरे की कमजोरी को दूर करने का यत्न करें । भारतीय संस्कृति में इसी व्यवस्था का नाम शादी है ।
शास्त्र कहते हैं कि जब पति-पत्नी का नाता हो जाता है तो दोनों को एक-दूसरे की उन्नति का सोचना चाहिए । पति या पत्नी यदि तन, मन अथवा बुद्धि से कमजोर है तो एक दूसरे का सहयोग करके एक-दूसरे की कमी को दूर करना चाहिए । एक दूसरे की योग्यता उभारने का यत्न करना चाहिए ।
ऐसा नहीं कि पत्नी पति को टोकती रहे या पति पत्नी को डाँटता रहे । इससे कमियाँ निकलने की अपेक्षा बढ़ती चली जायेंगी । पति पत्नी में से कोई यदि गलती करता है तो उस गलती को निकालने में कहीं गलतियों का भंडार न पैदा हो जाय इस बात का ध्यान रखना चाहिए ।
एक-दूसरे को बाहर से कुछ कहना भी पड़े तो कह दें किंतु दोनों का अंतःकरण सहानुभूति की भावना से भरा हो । ऐसा नहीं कि एक-दूसरे की कमियाँ ढूँढते रहें और अपनी शेखी बघारते रहें । एक-दूसरे को कमियों के कारण टोकते रहते हैं और एक-दूसरे की कमियाँ खटकती रहती हैं तो तलाक देने तक की स्थिति आ जाती है ।
मनुष्य का स्वभाव है कि जिसके प्रति उसकी द्वेष बुद्धि होती है उसके दोष ही दिखते हैं और जिसके प्रति राग बुद्धि होती है उसके गुण ही दिखते हैं । किसी के दोष निकालने में व्यक्ति दंड देने की अपेक्षा प्रेम से ज्यादा सफल होते हैं ।
बाल गंगाधर तिलक ने अपनी अनपढ़ पत्नी को पढ़ा-लिखाकर काफी ऊँचा उठा दिया था । लोगों ने कहाः “आपने तो कमाल कर दिया !” तिलक ने जवाब दिया कि “कमाल की क्या बात है ? अपने जीवनसाथी को ऊँचा उठाना तो हमारा कर्तव्य है । एक पहिये से गाड़ी ठीक नहीं चलती, दूसरे पहिये को भी ठीक करना पड़ता है ।”
पति-पत्नी, माता-पिता पुत्र एक दूसरे को दबोचने की कोशिश न करें । मैं तो यह कहूँगा कि शत्रु को भी दबोचने की कोशिश न करें, उससे सावधान रहें । उसको दबोचने की कोशिश से बड़ी हानि होती है । यदि आपके मन में शत्रु के प्रति भी हित की भावना है तो शत्रु का शत्रुपन टिक नहीं सकता ।
श्रीरामजी अंगद से कहते हैं तुम रावण के पास जाओ और उसको समझाने की कोशिश करो । सीता को लाने का काम तो हमारा है किंतु हित रावण का होना चाहिए ।
काजु हमार तासु हित होई । रिपु सन करेहु बतकही सोई ।। (श्रीरामचरितमानस, लं.का. 16.4)
पति जो कमाता है उस पर केवल पत्नी का ही हक नहीं है । परिवार के सभी सदस्यों की योग्यता बढ़ाने के लिए उसका उपयोग होना चाहिए वरना अपना पेट तो पशु भी भर लेते हैं । अपने बच्चों की चोंच में तो पक्षी भी दाना रख देते हैं ।
कुछ लोग कहते हैं कि स्त्री केवल भोग्या है, उसको मुक्ति का अधिकार नहीं है । किंतु भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि वह स्त्री को भी मुक्ति की अधिकारिणी मानती है । सावित्री, मदालसा, गार्गी आदि ने परमात्मा का अनुभव किया और गार्गी ने तो जनक के दरबार में बैठे हुए पंडितों को भी अपनी आत्मनिष्ठा के प्रभाव से चकित कर दिया ! ऐसी अनेक महान नारियाँ भारतीय संस्कृति में ही हुई हैं ।
स्त्री पुरुष की अर्धांगिनी है । उसमें भी वही चेतना है जो पुरुष में है । गृहस्थ-जीवन स्त्री के बिना अधूरा है । परब्रह्म परमात्मा भी कहते हैं कि ʹअकेले चौरस कैसे खेलें ? अकेले किससे बात करें ? दूसरा होगा तभी तो बात करेंगे !ʹ
परब्रह्म परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति में ही सृष्टि को उत्पन्न करने की शक्ति है । जैसे पुरुष की शक्ति उससे अलग नहीं, ऐसे ही परब्रह्म परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति उससे अलग नहीं । जैसे पानी और उसकी तरंग अलग दिखते हुए भी एक दूसरे से अलग नहीं, वैसे ही ईश्वर की व्यापक शक्ति माया, ईश्वर से अलग दिखते हुए भी उससे अलग नहीं ।
एक ही ईश्वरीय सत्ता के दो रूप हैं- एक रूप है त्याग और अऩुशासन तो दूसरा है तप और प्रेम । जैसेः शिव-पार्वती, राम-सीता, कृष्ण-राधा ।
स्त्री-पुरुष के सांसारिक व्यवहार में पुरुष अपना तेज स्त्री को देता है । स्त्री उसे नौ महीने तक गर्भ में संभालती है तथा अपने तप और प्रेम से बालक के रूप में बदलती है । अगर स्त्री में तप और प्रेम नहीं होता तो हम लोग यहाँ पर नहीं होते ।
सनातन धर्म कहता है कि जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहाँ देवता निवास करते हैं ।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
गृहस्थ जीवन बुरा नहीं है, बुरी है अंधी आसक्ति, बुरा है अंधा आवेश, बुरा है अंधा चटोरापन । मनुष्य अपने चारों पुरुषार्थों को साधकर सच्चिदानंद के पूर्ण आनंद को पा सके – ऐसी व्यवस्था सनातन संस्कृति में है ।
जीवन केवल कमाने-खाने और मर जाने के लिए नहीं है । पशुओं की तरह जीने के लिए जीवन नहीं है । जीवन आनंद उल्लास और आत्म परमात्म सुख की अभिव्यक्ति के लिए है ।
हमें कोई कहता है कि ʹयह मेरी मिसेस (पत्नी) है ।ʹ तो हम कहते हैं- ʹअसम्भवʹ । फिर उसकी पत्नी कहती है के ʹये मेरे मिस्टर (पति) हैं ।ʹ तो हम कहते हैं- ʹअसम्भवʹ । यह सुनकर दोनों हक्के बक्के रह जाते हैं ! फिर मैं धीरे-से कहता हूँ कि ʹविदेशों में जो शादी होती है उसमें काम की प्रधानता होती है और अपने देश में धर्म की प्रधानता होती है । मिस्टर और मिसेस तो भोगी लोग कहते हैं, धर्म-प्रधान जीवन जीने वाले भारतवासी को यह शोभा नहीं देता । इसलिये यहाँ मिस्टर और मिसेस नहीं, धर्मपत्नी (अर्धांगिनी) और पतिदेव कहते हैं ।ʹ
शुभ कर्म में अपनी ताकत होती है, बड़ा सामर्थ्य होता है । आप गृहस्थाश्रम में रहकर शुभ कर्म कर सकते हैं । शास्त्रानुकूल जीवन जीयें, संयम-नियम से रहें, परिवार का उचित पालन-पोषण करें, अपने बालकों में शुभ संस्कारों का सिंचन करें, माता-पिता, गुरु, अतिथि-अभ्यागत, साधु-संतों की सेवा करें, सत्संग-स्वाध्याय, जप-ध्यान, व्रत-उपवास आदि करें तो आप गृहस्थाश्रम में रहकर भी मुक्तिमार्ग के अधिकारी बन सकते हैं ।
यदि गृहस्थाश्रम को निभाने की कला आ जाय तो गृहस्थ-जीवन धन्य हो जाता है । इसीलिए शास्त्र कहते हैं – धन्यो गृहस्थाश्रम !