परम लाभ दिलानेवाले पंच पर्वों का पुंज : दीपावली
आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक, बौद्धिक लाभ और परम लाभ पहुँचाने की व्यवस्था के उत्सवों का नाम है दीपावली उत्सव, पर्वों का झुमका । धनतेरस, नरक चतुर्दशी, दिवाली, नूतन वर्ष, भाईदूज – इन पाँच पर्वों का पुंज है दीपावली पर्व ।
धनतेरस
‘स्कंद पुराण’ में आता है कि धनतेरस को दीपदान करनेवाला अकाल मृत्यु से पार हो जाता है । धनतेरस को बाहर की लक्ष्मी का पूजन धन, सुख-शांति व आंतरिक प्रीति देता है । जो भगवान की प्राप्ति में, नारायण में विश्रांति के काम आये वह धन व्यक्ति को अकाल सुख में, अकाल पुरुष में ले जाता है, फिर वह चाहे रुपये-पैसों का धन हो, चाहे गौ-धन हो, गजधन हो, बुद्धिधन हो या लोक-सम्पर्क धन हो ।
धनतेरस कहता है कि आप अपने प्रकाश में जियो, अपनी सूझबूझ में जियो, अपना हौसला बुलंद करो । ‘कोई मित्र आकर रक्षा करेगा, कोई पति या पत्नी अथवा मित्र आकर सँभालेगा’ – ऐसा विचार नहीं करो । सारे ब्रह्मांडों को जो सँभाल रहा है वही सबका आत्मस्वरूप है । धनतेरस को इस आत्मधन का चिंतन करें । आत्मसुख के लिए अंतरंग साधना है ।
अपने-आपमें, परमात्मसुख में तृप्ति पाना, सुख-दुःख में सम रहना, ज्ञान का दीया जलाना – यह वास्तविक धनतेरस, आध्यात्मिक धनतेरस है ।
नरक चतुर्दशी
काली चौदस की रात, कालरात्रि साधकों के लिए तपस्या और मंत्रसिद्धि का अवसर प्रदान करनेवाली है । इस रात्रि का जागरण और जप चित्शक्ति को परमात्मा में ले जाने में बड़ी मदद करते हैं ।
16 हजार कन्याओं को नरकासुर ने अपने नियंत्रण में रखा था । राजाओं की प्रार्थना से श्रीकृष्ण ने इस दिन कन्याओं को मुक्त किया और नरकासुर को परलोक भेज दिया । तभी से यह दिन नरक चतुर्दशी के नाम से विख्यात हुआ । यह दिवस संदेश देता है कि नरकासुर जैसा अहं परलोक पहुँचे और 16 हजार कन्या-सदृश वृत्तियाँ कृष्णस्वरूप आत्मा-परमात्मा में विराम करें तो परम मंगल हो गया ।
दीपावली
दीपावली का पर्व तो तमाम जातियों, सम्प्रदायों, लोगों में बड़े हर्षोल्लास से मनाया जाता है । मनुष्य-जीवन की माँग है कि उसे खुशी, प्रकाश, पुष्टि, सहानुभूति और स्नेह चाहिए । दीपावली स्नेह का, पुष्टि का निमित्त उत्पन्न करती है । इस दिन स्वास्थ्यप्रद माल-मिठाई, प्रसाद आदि लेना-देना किया जाता है । प्रकाश की आवश्यकता है तो दीपोत्सव मनाते हैं । जैसे दीप अँधेरी अमावस्या को भी उजला कर देते हैं, ऐसे ही कैसा भी प्रारब्ध हो, ज्ञानयुक्त पुरुषार्थ उस अंधकारमय प्रारब्ध को प्रकाशमय कर देता है ।
अगर इन सामाजिक उत्सवों के साथ-साथ इनमें आध्यात्मिकता का रंग भी डाल दें तो चार चाँद लग जायें । दीपावली में 4 काम करने होते हैं । एक तो घर का कचरा निकाल देना होता है; तो आप दुःख, चिंता, भय, शोक, घृणा पैदा करें ऐसे हीनता-दीनता के, हलके विचारों को निकाल दें । दूसरा, नयी चीज लानी होती है तो आप शांति, स्नेह, औदार्य और माधुर्य पैदा करें ऐसे नये विचार अपने चित्त में अधिक भरें । तीसरी बात, दीया जलाया जाता है अर्थात् जो कुछ भी करें, आत्मज्ञान के प्रकाश में करें । चौथा काम, मिठाई खाते और खिलाते हैं अर्थात् हम प्रसन्न रहें और प्रसन्नता बाँटें । शत्रु को भी टोटे चबवाने की अपेक्षा खीर-खाँड़ खिलाने का विचार करें तो आपके चित्त में मधुरता रहेगी ।
लक्ष्मीप्राप्ति हेतु साधना
जो धन चाहते हैं उनको यह मंत्र जपना चाहिए :
ॐ नमो भाग्यलक्ष्म्यै च विद्महे । अष्टलक्ष्म्यै च धीमहि । तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ।
स्थिर लग्न में, स्थिर मुहूर्त में जप धन को स्थिर करता है । दिवाली की रात लक्ष्मीप्राप्ति के लिए स्थिर लग्न माना गया है । लक्ष्मीप्राप्ति के लिए जापक को पश्चिम की तरफ मुँह करके बैठना चाहिए । पश्चिमे च धनागमः ।
तेल का दीपक व धूपबत्ती लक्ष्मीजी की बायीं ओर, घी का दीपक दायीं ओर एवं नैवेद्य आगे रखा जाता है । लक्ष्मीजी को तुलसी, मदार (आक) या धतूरे का फूल नहीं चढ़ाना चाहिए, नहीं तो हानि होती है ।
दीपावली संदेश
दिवाली की रात को छोटे स्वभाव के लोग पटाखे फोड़कर ही खुश हो जाते हैं । उससे तो प्रदूषण बढ़ता है लेकिन जो समझदार हैं वे पटाखे में ही खुश नहीं हो जाते, वे तो प्रीतिपूर्वक भगवान का भजन-सुमिरन करते हैं । जो भगवान को प्रीतिपूर्वक भजता है उसको वे बुद्धियोग देते हैं ।
नूतन वर्ष
नववर्ष प्रतिपदा के दिन सत्संग के विचारों को बार-बार विचारना । भगवन्नाम का आश्रय लेना ।
दीपावली की रात्रि को सोते समय यह निश्चय करेंगे कि ‘कल का प्रभात हमें मधुर करना है ।’ वर्ष का प्रथम दिन जिनका हर्ष-उल्लास और आध्यात्मिकता से जाता है, उनका पूरा वर्ष लगभग ऐसा ही बीतता है । सुबह जब उठें तो ‘शांति, आनंद, माधुर्य… आधिभौतिक वस्तुओं का, आधिभौतिक शरीर का हम आध्यात्मिकीकरण करेंगे क्योंकि हमें सत्संग मिला है, सत्य का संग मिला है, सत्य एक परमात्मा है । सुख-दुःख आ जाय, मान-अपमान आ जाय, मित्र आ जाय, शत्रु आ जाय, सब बदलनेवाला है लेकिन मेरा चैतन्य आत्मा सदा रहनेवाला है ।’ – ऐसा चिंतन करें और श्वास अंदर गया ‘सोऽ…’, बाहर आया ‘हम्…’, यह हो गया आधिभौतिकता का आध्यात्मिकीकरण, अनित्य शरीर में अपने नित्य आत्मदेव की स्मृति, नश्वर में शाश्वत की यात्रा ।
सुबह उठ के बिस्तर पर ही बैठकर थोड़ी देर श्वासोच्छ्वास को गिनना, अपना चित्त प्रसन्न रखना, आनंद उभारना ।
भाईदूज
यह भाई-बहन के निर्दोष स्नेह का पर्व है । बहन को सुरक्षा और भाई को शुभ संकल्प मिलते हैं । यमराज ने अपनी बहन यमी से प्रश्न किया : ‘‘बहन ! तू क्या चाहती है ? मुझे अपनी प्रिय बहन की सेवा का मौका चाहिए ।’’
यमी ने कहा : ‘‘भैया ! आज वर्ष की द्वितीया है । इस दिन भाई बहन के यहाँ आये या बहन भाई के यहाँ पहुँचे और इस दिन जो भाई अपनी बहन के हाथ का बना हुआ भोजन करे वह यमपुरी के पाश से मुक्त हो जाय ।’’
यमराज प्रसन्न हुए कि ‘‘बहन ! ऐसा ही होगा ।’’
भैया को भोजन कराना है तो उसमें स्नेह के कण भी जाते हैं । मशीनों द्वारा बने हुए भोजन में और अपने स्नेहियों के द्वारा बने हुए भोजन में बहुत फर्क होता है ।
ये उत्सव संकीर्णता मिटाते हैं और भोग-वासना को योग के प्रेम में बदलते हैं, अहंकार को नम्रता में बदलते हैं । आगे चलकर ऐसे उत्सव संतों के द्वार पर पहुँचाकर हमारे जीवत्व को शिवत्व में बदल देते हैं ।
सुख के साधन बढें ऐसा लालच साधक नहीं करते, लेकिन सुखस्वरूप परमात्मा में विश्रांति मिले ऐसी इच्छा करते हैं । दुःख न आये ऐसी प्रार्थना नहीं करते बल्कि दुःख आये तो उसको कुचलकर आगे बढ जायें ऐसी समझ और आत्मबल विकसित हो यह प्रार्थना करते हैं ।