हरतालिका तीज व्रत
भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र होता है । इस दिन भगवान शिव जी और माता पार्वती की पूजा की जाती है । इस व्रत को कुमारी तथा सौभाग्यवती स्त्रियाँ ही करती है । इस व्रत को करनेवाली स्त्रियाँ पार्वती के समान सौभाग्य को प्राप्त करती हैं ।
इस दिन स्त्रियाँ को निराहार रहकर, शाम के समय स्नान करके तथा शुद्ध वस्त्र धारण कर पार्वती तथा शिव की मिट्टी के प्रतिमा बनाकर पूजन की समय पूजा करनी चाहिए । इस दिन घर पर ही सुबह, दोपहर और शाम की पूजा करनी चाहिए । शाम को स्नान कर के विशेष पूजा के बाद व्रत खोला जाता है ।
पूजा के बाद यह सुहाग सामग्री किसी ब्राम्हणी को दान देने का विधान है । इस प्रकार शिव-पार्वती का पूजन करने के बाद कथा सुननी चाहिए । इस तरह व्रत करने से स्त्रियों को सौभाग्य प्राप्त होता है ।
हरतालिका तीज कथा
इस व्रत के महात्म्य की कथा भगवान शिव ने पार्वती जी को उनके पूर्व जन्म का स्मरण करवाने के उद्देश्य से इस प्रकार से कही थी –
हे गौरी ! पर्वतराज हिमालय पर गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया था । इस अवधि में तुमने अन्न ना खा कर केवल वायु का ही सेवन किया था । इतनी अवधि को तुमने सूखे पत्ते चबाकर काटा था ।
माघ की शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश कर तप किया था । वैशाख की जला देनेवाली गर्मी में पंचाग्नि से शरीर को तपाया । श्रावण की मूसलाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न, जल ग्रहण किये व्यतीत किया । तुम्हारी इस कष्टदायक तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दु:खी और नाराज होते थे । तब एक दिन तुम्हारी तपस्या और पिता की नाराजगी को देखकर नारद जी तुम्हारे घर पधारे ।
तुम्हारे पिता द्वारा आने का कारण पूछने पर नारद जी बोले –“हे गिरिराज ! मैं भगवान विष्णु के भेजने पर यहाँ आया हूँ । आपकी कन्या की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर वह उससे विवाह करना चाहते हैं । इस बारे में मैं आपका विचार जानना चाहता हूँ ।’ नारदजी की बात सुनकर पर्वतराज अति प्रसन्नता के साथ बोले – “श्रीमान् ! यदि स्वयं विष्णु जी मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है । वे तो साक्षात् ब्रह्म हैं । यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-संपदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने ।’
नारदजी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णुजी के पास गए और उन्हें विवाह तय होने का समाचार सुनाया । परंतु जब तुम्हें इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हारे दुःख का ठिकाना ना रहा । तुम्हें इस प्रकार से दु:खी देखकर तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछा तब तुमने बताया – “मैंने सच्चे मन से भगवान शिव का वरण किया है, किंतु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है । मैं विचित्र धर्मसंकट में हूँ । अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा ।”
तुम्हारी सखी बहुत ही समझदार थी । उसने कहा – ‘प्राण छोड़ने का यहाँ प्रयोजन ही क्या है ? संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिए । भारतीय नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि जिसे मन से पति रूप से एक बार वरण कर लिया, जीवनपर्यंत उसी से निर्वाह करे । सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो भगवान भी असहाय हैं । मैं तुम्हें घनघोर वन में ले चलती हूँ जो साधना स्थल भी है और जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हें खोज भी नहीं पायेंगे । मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे ।’
तुमने ऐसा ही किया । तुम्हारे पिता तुम्हें घर में ना पाकर बड़े चिंतित और दु:खी हुए । वह सोचने लगे कि मैंने तो विष्णु जी से अपनी पुत्री का विवाह तय कर दिया हैं । यदि भगवान विष्णु बारात लेकर आ गये और कन्या घर पर नहीं मिली तो बहुत अपमान होगा, ऐसा विचार कर पर्वतराज ने चारों और तुम्हारी खोज शुरू करवा दी । इधर तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर स्थित गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगी । भाद्रपद तृतीया शुक्ल को हस्त नक्षत्र था । उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया । रात भर मेरी स्तुति में गीत गाकर जागरण किया । तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँचा और तुमसे वर माँगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलीभूत होनेपर मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा – ‘मैं आपको सच्चे मन से पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ । यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिये । तब ‘तथास्तु’ कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया । प्रात: होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित करके अपनी सखी सहित व्रत का वरण किया । उसी समय गिरिराज अपने बंधु-बाँधवों के साथ तुम्हें खोजते हुए वहाँ पहुँचे । तुम्हारी दशा देखकर अत्यंत दु:खी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण पूछा । तब तुमने कहा – ‘पिताजी मैंने अपने जीवन का अधिकांश वक्त कठोर तपस्या में बिताया है । मेरी इस तपस्या का उद्देश्य केवल महादेवजी को पति रूप में प्राप्त करना था । आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूँ । क्योंकि आप मेरा विवाह विष्णुजी से करने का निश्चय कर चुके थे, इसलिए मैं अपने आराध्य की तलाश में घर से चली गई । अब मैं आप के साथ घर इसी शर्त पर चलूंगी कि आप मेरा विवाह महादेव जी के साथ ही करेंगे । पर्वतराज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार कर ली और तुम्हें घर वापस ले आए । कुछ समय बाद उन्होंने पूरे विधि-विधान के साथ हमारा विवाह किया ।
भगवान शिव ने आगे कहा – ‘हे पार्वती ! भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरुप हम दोनों का विवाह संभव हो सका । इस व्रत का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करनेवाली प्रत्येक स्त्री को मनोवांछित फल देता हूँ ।
इस व्रत को “हरतालिका” इसलिए कहा जाता है क्योंकि पार्वती की सखी उन्हें पिता और प्रदेश से हर कर जंगल में ले गई थी । ‘हस्त’ अर्थात हरण करना और ‘आलिका’ अर्थात् सखी ।
भगवान शिव ने पार्वती जी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा ।