भोजन के नियम क्यों आवश्यक
- अधिकांश लोग भोजन की सही विधि नहीं जानते। गलत विधि से गलत मात्रा में अर्थात् आवश्यकता से अधिक या बहुत कम भोजन करने से या अहितकर भोजन करने से जठराग्नि मंद पड़ जाती है, जिससे कब्ज रहने लगता है। तब आँतों में रूका हुआ मल सड़कर दूषित रस बनाने लगता है। यह दूषित रस ही सारे शरीर में फैलकर विविध प्रकार के रोग उत्पन्न करता है। उपनिषदों में भी कहा गया हैः आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः। शुद्ध आहार से मन शुद्ध रहता है।
- साधारणतः सभी व्यक्तियों के लिए आहार के कुछ नियमों को जानना अत्यंत आवश्यक है। जैसे- आलस तथा बेचैनी न रहें, मल, मूत्र तथा वायु का निकास य़ोग्य ढंग से होता रहे, शरीर में उत्साह उत्पन्न हो एवं हलकापन महसूस हो, भोजन के प्रति रूचि हो तब समझना चाहिए की भोजन पच गया है। बिना भूख के खाना रोगों को आमंत्रित करता है। कोई कितना भी आग्रह करे या आतिथ्यवश खिलाना चाहे पर आप सावधान रहें।
- सही भूख को पहचानने वाले मानव बहुत कम हैं। इससे भूख न लगी हो फिर भी भोजन करने से रोगों की संख्या बढ़ती जाती है। एक बार किया हुआ भोजन जब तक पूरी तरह पच न जाय एवं खुलकर भूख न लगे तब तक दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए। अतः एक बार आहार ग्रहण करने के बाद दूसरी बार आहार ग्रहण करने के बीच कम-से-कम छः घंटों का अंतर अवश्य रखना चाहिए क्योंकि इस छः घंटों की अवधि में आहार की पाचन-क्रिया सम्पन्न होती है। यदि दूसरा आहार इसी बीच ग्रहण करें तो पूर्वकृत आहार का कच्चा रस(आम) इसके साथ मिलकर दोष उत्पन्न कर देगा। दोनों समय के भोजनों के बीच में बार-बार चाय पीने, नाश्ता, तामस पदार्थों का सेवन आदि करने से पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है, ऐसा व्यवहार में मालूम पड़ता है।
- रात्रि में आहार के पाचन के समय अधिक लगता है इसीलिए रात्रि के समय प्रथम पहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। शीत ऋतु में रातें लम्बी होने के कारण सुबह जल्दी भोजन कर लेना चाहिए और गर्मियों में दिन लम्बे होने के कारण सायंकाल का भोजन जल्दी कर लेना उचित है।
- अपनी प्रकृति के अनुसार उचित मात्रा में भोजन करना चाहिए। आहार की मात्रा व्यक्ति की पाचकाग्नि और शारीरिक बल के अनुसार निर्धारित होती है। स्वभाव से हलके पदार्थ जैसे कि चावल, मूँग, दूध अधिक मात्रा में ग्रहण करने सम्भव हैं परन्तु उड़द, चना तथा पिट्ठी से बने पदार्थ स्वभावतः भारी होते हैं, जिन्हें कम मात्रा में लेना ही उपयुक्त रहता है।
- भोजन के पहले अदरक और सेंधा नमक का सेवन सदा हितकारी होता है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है, भोजन के प्रति रूचि पैदा करता है तथा जीभ एवं कण्ठ की शुद्धि भी करता है।
- भोजन गरम और स्निग्ध होना चाहिए। गरम भोजन स्वादिष्ट लगता है, पाचकाग्नि को तेज करता है और शीघ्र पच जाता है। ऐसा भोजन अतिरिक्त वायु और कफ को निकाल देता है। ठंडा या सूखा भोजन देर से पचता है। अत्यंत गरम अन्न बल का ह्रास करता है। स्निग्ध भोजन शरीर को मजबूत बनाता है, उसका बल बढ़ाता है और वर्ण में भी निखार लाता है।
- चलते हुए, बोलते हुए अथवा हँसते हुए भोजन नहीं करना चाहिए।
- दूध के झाग बहुत लाभदायक होते हैं। इसलिए दूध खूब उलट-पुलटकर, बिलोकर, झाग पैदा करके ही पियें। झागों का स्वाद लेकर चूसें। दूध में जितने ज्यादा झाग होंगे, उतना ही वह लाभदायक होगा।
- चाय या कॉफी प्रातः खाली पेट कभी न पियें, दुश्मन को भी न पिलायें।
- एक सप्ताह से अधिक पुराने आटे का उपयोग स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है।
- भोजन कम से कम 20-25 मिनट तक खूब चबा-चबाकर एवं उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके करें। अच्छी तरह चबाये बिना जल्दी-जल्दी भोजन करने वाले चिड़चिड़े व क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं। भोजन अत्यन्त धीमी गति से भी नहीं करना चाहिए।
- भोजन सात्त्विक हो और पकने के बाद 3-4 घंटे के अंदर ही कर लेना चाहिए।
- स्वादिष्ट अन्न मन को प्रसन्न करता है, बल व उत्साह बढ़ाता है तथा आयुष्य की वृद्धि करता है, जबकि स्वादहीन अन्न इसके विपरीत असर करता है।
- सुबह-सुबह भरपेट भोजन न करके हलका-फुलका नाश्ता ही करें।
- भोजन करते समय भोजन पर माता, पिता, मित्र, वैद्य, रसोइये, हंस, मोर, सारस या चकोर पक्षी की दृष्टि पड़ना उत्तम माना जाता है। किंतु भूखे, पापी, पाखंडी या रोगी मनुष्य, मुर्गे और कुत्ते की नज़र पड़ना अच्छा नहीं माना जाता।
- भोजन करते समय चित्त को एकाग्र रखकर सबसे पहले मधुर, बीच में खट्टे और नमकीन तथा अंत में तीखे, कड़वे और कसैले पदार्थ खाने चाहिए। अनार आदि फल तथा गन्ना भी पहले लेना चाहिए। भोजन के बाद आटे के भारी पदार्थ, नये चावल या चिवड़ा नहीं खाना चाहिए।
- पहले घी के साथ कठिन पदार्थ, फिर कोमल व्यंजन और अंत में प्रवाही पदार्थ खाने चाहिए।
- माप से अधिक खाने से पेट फूलता है और पेट में से आवाज आती है। आलस आता है, शरीर भारी होता है। माप से कम अन्न खाने से शरीर दुबला होता है और शक्ति का क्षय होता है।
- बिना समय के भोजन करने से शक्ति का क्षय होता है, शरीर अशक्त बनता है। सिरदर्द और अजीर्ण के भिन्न-भिन्न रोग होते हैं। समय बीत जाने पर भोजन करने से वायु से अग्नि कमजोर हो जाती है। जिससे खाया हुआ अन्न शायद ही पचता है और दुबारा भोजन करने की इच्छा नहीं होती।
- जितनी भूख हो उससे आधा भाग अन्न से, पाव भाग जल से भरना चाहिए और पाव भाग वायु के आने जाने के लिए खाली रखना चाहिए। भोजन से पूर्व पानी पीने से पाचनशक्ति कमजोर होती है, शरीर दुर्बल होता है। भोजन के बाद तुरंत पानी पीने से आलस्य बढ़ता है और भोजन नहीं पचता। बीच में थोड़ा-थोड़ा पानी पीना हितकर है। भोजन के बाद छाछ पीना आरोग्यदायी है। इससे मनुष्य कभी बलहीन और रोगी नहीं होता।
- प्यासे व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। प्यासा व्यक्ति अगर भोजन करता है तो उसे आँतों के भिन्न-भिन्न रोग होते हैं। भूखे व्यक्ति को पानी नहीं पीना चाहिए। अन्नसेवन से ही भूख को शांत करना चाहिए।
- भोजन के बाद गीले हाथों से आँखों का स्पर्श करना चाहिए। हथेली में पानी भरकर बारी-बारी से दोनों आँखों को उसमें डुबोने से आँखों की शक्ति बढ़ती है।
- भोजन के बाद पेशाब करने से आयुष्य की वृद्धि होती है। खाया हुआ पचाने के लिए भोजन के बाद पद्धतिपूर्वक वज्रासन करना तथा 10-15 मिनट बायीं करवट लेटना चाहिए(सोयें नहीं), क्योंकि जीवों की नाभि के ऊपर बायीं ओर अग्नितत्त्व रहता है।
- भोजन के बाद बैठे रहने वाले के शरीर में आलस्य भर जाता है। बायीं करवट लेकर लेटने से शरीर पुष्ट होता है। सौ कदम चलने वाले की उम्र बढ़ती है तथा दौड़ने वाले की मृत्यु उसके पीछे ही दौड़ती है।
- रात्रि को भोजन के तुरंत बाद शयन न करें, 2 घंटे के बाद ही शयन करें।
- किसी भी प्रकार के रोग में मौन रहना लाभदायक है। इससे स्वास्थ्य के सुधार में मदद मिलती है। औषधि सेवन के साथ मौन का अवलम्बन हितकारी है।
- जो सिर पर पगड़ी या टोपी रख के, दक्षिण की ओर मुख करके अथवा जूते पहन कर भोजन करता है, उसका वह सारा भोजन आसुरी समझना चाहिए। (महाभारत, अनुशासन पर्वः 90.19)
- जो सदा सेवकों और अतिथियों के भोजन कर लेने के पश्चात् ही भोजन करता है, उसे केवल अमृत भोजन करने वाला (अमृताशी) समझना चाहिए। (महाभारत, अनुशासन पर्वः 93.13)
- भोजन के बीच-बीच में गुनगुना पानी पीना पुष्टिदायक है और भोजन के एक घंटे के बाद पानी पीना अमृततुल्य माना जाता है। प्रायः भोजन के बीच एक ग्लास (250 मि.ली.) पानी पीना पर्याप्त है।
- जब बायाँ नथुना चल रहा हो तो तभी पेय पदार्थ पीने चाहिए। दायाँ स्वर चालू हो उस समय यदि पेय पदार्थ पीना पड़े तो दायाँ नथुना बंद करके बायें नथुने से श्वास लेते हुए ही पीना चाहिए।
- साँस का दायाँ स्वर चलता हो तब भोजन और बायें स्वर के चलते समय पेय पदार्थ लेना स्वास्थ्य के लिए हितकर है।
- मल-मूत्र त्यागने व रास्ता चलने के बाद तथा स्वाध्याय व भोजन के पहले पैर धो लेने चाहिए। भीगे पैर भोजनतोकरे परंतु शयन न करे। भीगे पैर भोजन करने वाला मनुष्य लम्बे समय तक जीवन धारण करता है। (महाभारत, अनुशासन पर्व)
- परोसे हुए अन्न की निंदा नहीं करनी चाहिए। मौन होकर एकाग्र चित्त से भोजन करना चाहिए। भोजनकाल में यह अन्न पचेगा या नहीं, इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए।भोजन के बाद मन-ही-मन अग्नि क ध्यान करना चाहिये| भोजन के अंत में दही नहीं, मट्ठा पीना चाहिए तथा एक हाथ से दाहिने पैरे के अंगूठे पर जल डालें फिर जल से आँख, नाक, कान व नाभि का स्पर्श करें। (महाभारत, अनुशासन पर्व)
- पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके भोजन करने से क्रमशः दीर्घायु और सत्य की प्राप्ति होती है। भूमि पर बैठकर ही भोजन करे, चलते-फिरते कभी न करे। किसी के साथ एक पात्र में तथा अपवित्र मनुष्य के निकट बैठकर भोजन करना निषिद्ध है। (महाभारत, अनुशासन पर्व)
- जिसको रजस्वला स्त्री ने छू दिया हो तथा जिसमें से सार निकाल लिया गया हो, ऐसा अन्न कदापि न खाये।
- सत्पुरुषों के सामने बैठकर भोजन न करे।
- सावधानी के साथ केवल सुबह और शाम को ही भोजन करे, बीच में कुछ भी खाना उचित नहीं है। शाम के समय अल्पाहार करे, दिन में भी उचित मात्रा में सेवन करे। भोजन के समय मौन रहना और आसन पर बैठना उचित है। निषिद्ध पदार्थ न खाये। (महाभारत, अनुशासन पर्व)
- भोजन पीना चाहिए और पानी खाना चाहिए। अर्थात् भोजन को इतना चबाओ कि वह पानी जैसा तरल बन जाय। पानी अथवा दूसरा पेय पदार्थ इतनाआराम से पीना चाहिए मानो खा रहे हों।
- खड़े होकर पानी पीना हानिकारक है, बैठकर और चुस्की लेते हुए पानी पियें।
- अंजली से पानी नहीं पीना चाहिए।
- स्नान किये बिना, मंत्रजप किये बिना, देवताओं को अर्पण किये बिना, गुरु, माता-पिता, अतिथि तथा अपने आश्रितों को भोजन कराये बिना, अपने से प्रेम न करने वाले व्यक्ति द्वारा बनाया या परोसा गया, उत्तर (या पूर्व) की ओर मुख किये बिना, जूठे मुख से, अपवित्र पात्रों में, अनुचित स्थान पर, असमय, हाथ-पैर-मुँह धोये बिना, बिना इच्छा के या उदास मन से, परोसे गये अन्न की निंदा करते हुए भोजन नहीं करना चाहिए।
- जो मनुष्य अमावस्या को दूसरे का अन्न खाता है, उसका महीने भर का किया हुआ पुण्य दूसरे को (अन्नदाता को) मिल जाता है। अयनारम्भ (दक्षिणायन या उत्तरायण) के दिन दूसरे का अन्न खाय तो छः महीनों का और विषुवकाल (जब सूर्य मेष अथवा तुला राशि पर आये) में दूसरे का अन्न खाने से तीन महीनों का पुण्य चला जाता है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाये तो बारह वर्षों से एकत्र किया हुआ सब पुण्य नष्ट हो जाता है। संक्रान्ति के दिन दूसरे का अन्न खाने से महीने भर से अधिक समय का पुण्य चला जाता है। (स्कन्द पुराण, प्रभाव खं. 207.11.13)
- जो निर्बुद्धि गृहस्थ अतिथिसत्कारके लोभ से दूसरे के घर जाकर उसका अन्न खाता है, वह मरने के बाद उस अन्नदाता के यहाँ पशु बनता है। (मनु स्मृतिः 3.104)
- भोजन करके हाथ-मुँह धोये बिना सूर्य, चंद्र, नक्षत्र इन त्रिविध तेजों की ओर कभी दृष्टि नहीं डालनी चाहिए। (महाभारत, अनुशासन पर्व)