नैऋत्य स्थल की महत्ता
ईशान रखें नीचा, नैऋत्य रखें ऊँचा । यदि चाहते हो वास्तु से अच्छा नतीजा ।। किसी भी वास्तु में ईशान के समान महत्ता रखनेवाला दूसरा स्थल है ‘नैऋत्य स्थल’ | कमरे अथवा भूमिखंड की दक्षिणी व पश्चिमी दीवालों अथवा बाजुओं के एक तिहाई- एक तिहाई भाग से जो स्थल बनता है, वह ‘नैऋत्य स्थल’ कहलाता है | जो लोग सुख, समृद्धि एवं ऐश्वर्य प्राप्ति के इच्छुक हैं, उन्हें अपने वास्तु के ईशान व नैऋत्य स्थल तथा ब्रह्मस्थान (वास्तु (मकान या इमारत) का मध्य भाग) सर्व प्रकार से दोषमुक्त बनाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए | शास्रों में नैऋत्य स्थल को गृहस्वामी का स्थान बताया गया है | इसका सीधा संबंध घर या स्थान के स्वामी के स्वास्थ, आयु, आय, भौतिक सुख- सुविधा आदि से होता है | आय से होनेवाली बचत भी इसी स्थान द्वारा प्रभावित होती है | इसलिए यदि नैऋत्य कोण में कोई दोष अथवा वस्तुविरुद्ध निर्माण है तो उसे वास्तुसम्मत बनवाना बहुत ही आवश्यक है | गृहस्वामी द्वारा इस स्थान पर रहने, सोने या फैक्ट्री, दफ्तर, दुकान आदि में बैठने से बाकी सभी लोग उनके कहे अनुसार कार्य करते है और आज्ञापालन में विरोध नहीं करते | अपने आधीन कर्मचारी को इस स्थान पर नहीं बैठना चाहिए, अन्यथा उसका प्रभाव आपसे अधिक हो जायेगा | इस स्थान को कभी भी किराये पर नहीं देना चाहिए | यदि निर्माण बहुमंजिला है तो सबसे ऊपरवाली मंजिल के नैऋत्य स्थल में रहनेवाले व्यक्ति का प्रभाव सबसे अधिक होता है, फिर कर्मश: निचेवाली मंजिलों के स्थलों का प्रभाव होता है | घर, फैक्ट्री, कार्यालय आदि का मुख्य द्वार का कोई अन्य द्वार नैऋत्य में खुलता है तो धन- संचय होना अत्यंत कठिन होगा एवं आकस्मिक ख़र्चों की संभावना बढ़ जाती है | दक्षिण एवं पच्छिम दिशा की दीवारें यदि आपस में 90° का कोण नहीं बनाती तो घर, व्यापार, दुकान आदि की उन्नति में प्रयास करने के बाद भी अपेक्षित सफलता नहीं मिलती, इसलिए इस स्थान का एकदम 90° में होना अत्यंत आवश्यक है | नैऋत्य स्थल का बढ़ा अथवा कम होना दोनों ही हानिकारक है | यदि नैऋत्य स्थल कटा हुआ है तो भी व्यापार में सफलता नहीं मिलती | नैऋत्य दिशा में यदि शौचालय अथवा रसोईघर का निर्माण हुआ हो तो गृहस्वामी को सदैव स्वाथ्य संबंधी मुश्किलें रहती है | अतः इन्हें सर्वप्रथम हटा लेना चाहिए | चीनी ‘वायु-जल’ वस्तुपद्धति ‘फेंग-शुई’ के मत से यहाँ गहरे पिले रंग का वॉट या बल्ब सदैव जलता रखने से इस का दोष का काफी हद तक निवारण संभव है | भारतीय वास्तुशास्त्र में ऐसा विकल्प नहीं है | इस कोण की भूमि, छत एवं कम्पाउंड वॉल ईशान की अपेक्षा ऊँची होनी चाहिए, इस ओर ढलान कदापि नहीं होनी चाहिए | इससे ईशान की और से आनेवाली धनात्मक ऊर्जा वास्तु में प्रवेश करेगी और नैऋत्य कोण से बाहर नहीं निकल पायेगी | यह स्थान अन्य स्थानों से नीचा होने पर धन की हानि के साथ-साथ भावी योजनाएँ भी पूरी नहीं होती | इस कोण में छज्जा नहीं होना श्रेष्ठ माना गया है | यदि हो तो वह भी ईशान स्थल की अपेक्षा ऊँचा होना चाहिए | यदि नैऋत्य में कोई कुआँ, हैंडपम्प, सेप्टिक टैंक अथवा जमीन में किसी भी प्रकार का गड्ढा है तो गृहस्वामी के स्वास्थ पर उसका हानिकारक प्रभाव पड़ने की निरन्तर सम्भावना रहती है | इस स्थल पर पानी नहीं होना चाहिए | भूमिगत टंकी तो अत्यंत हानिकारक है | छत के ऊपरकी टंकी (ओवर हेड टैंक) हलाँकि इस स्थल को वजन व ऊँचाई प्रदान करता है परंतु जलतत्व से युक्त होने के कारण हानिकारक ही है | नैऋत्य स्थल में कोई भी निर्माण करने के बाद उसे खुला नहीं छोड़ना चाहिए, छत द्वारा तुरंत ढक देना चाहिए | इस स्थल को कभी भी खाली नहीं रखना चाहिए | नैऋत्य में भूखंड का विस्तार नहीं करना चाहिए | इस दिशा में बिना मूल्य प्राप्त होनेवाला भूखंड भी नहीं लेना चाहिए | नैऋत्य में निर्माण या मरम्मत में ढील या विलम्ब वांछनीय नहीं है | यह जानलेवा भी बन सकता है | समस्त सामग्री इकट्ठी करके ही निर्माण या फेरफार करें | वास्तु का नैऋत्य स्थल यदि दोषपूर्ण है तो कुछ दशाओं में ऐसे बड़े प्लॉट का परिस्थिति- अनुसार उचित वास्तु- विभाजन कर इस दोष का निवारण किया जा सकता है परंतु प्रत्येक परिस्थिति में यह संभव नहीं है | |